वर्ण-वर्ण संजोकर
गढ़ी थी मैंने
अपने सपनों की कविता।
परन्तु
कितनी निर्दयता से किया पोस्ट्मार्टम
कथित विशेषज्ञों ने,
पंक्तियाँ
वाक्य
शब्द
बिखेर कर परखे गए।
मुझे दुःख न हुआ
दुःख तो तब हुआ
जब—
शब्दों का संधिविच्छेद कर
उन विशेषज्ञों ने
एक-एक वर्ण अलग कर
पुनः थमा दिए
मेरी हथेलियों में
फिर गढ़ने को एक कविता।
ताकि चलती रहे रुटीन पोस्ट्मार्टम की
उनको भी
मुझे भी,
मिलता रहे काम।
परन्तु
काम के बदले अनाज नहीं,
मिलती है—
लम्बी चादर बेकारी की
ओढ़कर सोने को!
समर्पण को
बस, टूटने को
बिखरने को।