कई दफ़ा कपड़ों के धागे खुल जाने पर
हिदायत दिया करती थी मेरी माँ,
तब टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें बनाकर धागे की,
कर देती थी उन्हें सन्तुष्ट।
खाना पकाने को लेकर भी मिला करती थीं
चेतावनियाँ अनगिनत,
घर से, रिश्तेदारों से,
यहाँ तक कि
मुहल्ले वालों से भी।
“ये सब तो करना ही पड़ेगा लड़की जो हो”
ये दूर-दूर से प्रतिध्वनित होता
तकिया कलाम था,
जो गूँजता रहता था, कानों में
घुलता रहता था मन में,
नसों में बहने लगती थी ये बातें
बनकर हलाहल।
तब सोचा करती थी मैं
क्या लड़की बनकर जन्म लेना ही
जघन्य अपराध है।
किसी के घर आने पर,
बोलने, बतियाने, बैठने का सलीका
सीखती रहती थी मैं
हर दिन, हर घड़ी।
मन पर हो रहे पत्थरों की बारिश से,
फिर भी
ख़ुद को रखना चाहा बचाकर,
टूटने न दिया हौसले को।
बना लिया ढाल उन जज़्बातों को भी
जो कभी दिन में,
कभी रातों में,
कानों में ज़ोर-ज़ोर से चीखते रहते थे।
विपरीत विचारों की ज़ोर आज़माइश भी
अब रोज़ की कहानी थी।
मरी हुई दादी भी सपनों में आकर,
घरौंदे को बनाकर रखने की सीख दे जाती थीं।
अब उस ज्ञान की टोकरी में
भरकर ज्ञानमाला मैं
ढोती हूँ अपने सिर पर,
जिसके चलते गर्दन की हड्डी टूटी हुई
मालूम पड़ती है,
पीठ पर शिकायतों और सलाहों के बोझ से,
एक कूबड़ बन गई है,
और आँखों में भी
हया, नज़ाकत की काजल
लगा रखने की सीख से
नसे सूख गई हैं आँखों की,
अब इनमें वो ताज़गी, वो रौनक
नज़र नहीं आती।
फिर भी लोगों की
प्रश्नवत दृष्टि से
आँखों के नीचे काले घेरों
ने घर कर रखा है।
इसीलिए माँ की कही हुई बातें
याद करके,
धागे को सूई में पिरोकर
रफ़ू करने की कोशिश में
लगी रहती हूँ,
उन टूटते हुए रिश्तों को,
पर क्या ये सीख
उसे भी मिली होगी
जो जन्मा होगा
बनकर वंश का चिराग।

अनुपमा मिश्रा
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