रेगिस्तान की तरह सूखा हूँ
समुन्द्र-सा अकेला और
पहाड़ों की तरह उदास
मैं ही तो हूँ
क्या ही हूँ मैं।
तीर्थयात्राएँ पवित्र करती हैं शरीर और मन, कैथार्सिस (catharsis) की तरह। बहुत ज़रूरी है कैथार्सिस। होने देना चाहिए इसको हमेशा। कोई फ़ायदा नहीं अपनी कमज़ोरियों को छुपाने का। अनियोजित यात्राएँ सबसे सुंदर यात्राएँ होती हैं। केदारनाथ के रास्ते पर हूँ। पहाड़ों और नदी के साथ मामूली-सा मैं। पैदल चलने से बड़ा सुख कोई नहीं, पृथ्वी होने जैसा अनुभव है यह। आसमान की तरह चमकीला और साफ़ होना चाहता हूँ।
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‘धुंध से उठती धुन’ को बेतरतीबी से खोलता हूँ, निर्मल कोट (quote) करता है किसी को,
‘स्मृति कल्पना का अभाव है। हर दिन हम चीज़ों को देखते हैं, उसमें कल्पना नहीं, स्मृति सक्रिय रहती है।’ देखने में स्मृति शामिल है। विचार बाधा है दृश्य में। बच्चे की आँखों से देखना चाहता हूँ फिर से सबकुछ। जीवन छूट रहा है। आँखें खुली हैं तो दिमाग़ की बकबक क्यों सुनूँ? सोचना घातक होता जा रहा है।
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“भाई घोड़ा चाहिए?”
रोहित— “खच्चर है भाई ओ! घोड़ा नहीं।”
“खच्चर चाहिए?”
“मैं ख़ुद अभी घोड़े जैसा हूँ।”
“चार पैर होवे उसके।”
“हाथ नहीं होते बेचारे के।”
खच्चरों के घुँघरू आधुनिक पंजाबी गानों से सुरीले हैं। लय है उनमें। मेरे जीवन में अभी नहीं है। कुछ लोग मेरे सामने नहीं मुस्कुराते हैं, कुछ की कहानियो में उपसंहार नहीं आया अभी, वे मुस्कुराते हैं।
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शिव का मतलब ‘जो नहीं है’, उसकी तरफ़ उत्साह से जाते लोग। क्या है मुक्ति? किससे मुक्ति? अहंकार से? शायद!
Ancient wisdom.
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जीवन की धुन में आने के लिए कितनी साधना करनी पड़ेगी? बेहोशी में जीना पीड़ादायक है। रास्ते में लिखा है, ‘कष्ट के लिए खेद है’। Murakami, Norwegian Wood में लिखता है, “Pain is inevitable but suffering is optional.” क्या सच में दुःख हमें माँजता है?
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क्या खोजता हूँ लड़कियों के चेहरे पर? क्यों खोजता हूँ कुछ?
हवस है मेरी या फिर कोई आदिम सौंदर्य को पाने की भूख? आँखों के खेल हैं निराले। गुज़र जाती कई आँखें कुछ बताती हैं, दिमाग़ अभी बच्चा है समझने के लिए। कुछ आँखों को देखकर लगता है कि इन्हें जीवन का सारा रहस्य पता है। Face is the index of mind. ~ Wittgenstein
कुछ चेहरे देखकर उन्हें टटोलने का मन करता है।
काश! अंशुप्रिया साथ होती।
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रात हो गयी चलते-चलते। ‘चलत चलत जुग भया, कुण बतावे धाम रे’, राजस्थान कबीर यात्रा के भजन स्मृति से झाँकते हैं। ‘थारो राम हृदय माई, बारे क्यों भटके।’ चार दोस्त पीछे रह गए, चार हम आगे जा रहे है शून्यता की ओर। ग्रुप में जाना राहत भी और आफ़त भी। श्रीराम भैया को हल्का बुखार आ गया, विक्रम की साँस फूल गयी। रुक-रुककर चलते है। हर स्टॉप पर विक्रम का प्रमोशन होता है। अब वह मेजर है। पदवियों का अलग नशा होता है। यश एक शांत योद्धा की तरह मेरे साथ है। ठहरे हुए लोग मुझे हमेशा भाते हैं।
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शुक्र तारा कुछ ज़्यादा ही चमक रहा है, तारे मौज़ में है सारे। सप्तऋषि मण्डल जाना-पहचाना लग रहा है। इतना चमचमाता आकाश मैंने सम के धोरो में देखा था पिछले साल। यही महीना था, अक्टूबर! झीनी झीनी सर्दी। यश के फ़ोन से तारे पहचानने की कोशिश की। Sky Map ऐप में जिधर फ़ोन घुमाओ उस दिशा के तारों और नक्षत्रों का परिचय मिलता है।
अपनी राशि को खोजता हूँ। सूरज पृथ्वी के एकदम नीचे है, चाँद उसके बग़ल में। अंधेरा उनकी याद दिलाता है। एकदम से जीवन जादू की तरह लगता है, शून्य में घूमती हुई पृथ्वी पर।
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खच्चरों को देखकर लगा कि इनकी हालत पर रोना चाहिए और Nietzsche की तरह पागल हो जाना चाहिए, फिर ख़याल आया कि इनके खुर अगर मिल जाएँ तो मैं भी ज़मीन का कोलम्बस बन जाऊँगा, Werner Herzog जैसी डॉक्यूमेंट्रीज़ बनाऊँगा। Nietzsche कहता है कि चलने पर विचार आते हैं और शंकराचार्य के अनुसार चलने से विस्मृति आती है, शुद्धचेतन अवस्था आती है। द्वैत में कितना अद्वैत है! मैं इस मामले में अवसरवादी हूँ। विचारों को आने देता हूँ और विस्मृति में भी गोते लगाता जाता हूँ।
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किसी भी तरह का डर इंटेलिजेंस को ख़त्म करता है। डर को ऑब्ज़र्व करने वाले अक्सर लेखक हो जाते हैं। एक खच्चर वाले ने नीचे जाते हुए कहा, आगे बाघ दिखा है अभी-अभी, ज़रा सावधानी से। सभी स्तब्ध। एक और ग्रुप साथ आ जाता है। सहूलियत के हिसाब से सब जैसी भी लकड़ी हाथ लगती, रख लेते हैं। मेरे हत्थे लोहे का एक भारी पाइप चढ़ा। पता नहीं बाघ आया तो उसे उठा भी पाऊँगा कि नहीं। भैया बताते हैं कि सभी बाघ आदमख़ोर नहीं होते। मेरे दिमाग़ में बाघ के साथ मेरी ज़बरदस्त भिड़ंत चल रही है। बाघ को खाई में गिराने के बाद मेरा ध्यान बढ़ती ठण्ड की तरफ़ जाता है। हाथ अकड़ गए हैं। मेजर और ब्रिगेडियर मुझे डाँटते हैं कि मैं बहुत तेज़ चल रहा हूँ।
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दिमाग़ का बोझ ज़्यादा भारी होता है। पहाड़ी आदमी एक बीमार लड़की को पीठ पीछे लादे मस्ती से चल रहा है। ढाबे वाले ने बताया, एक राजस्थान की लड़की पीछे खाई में गिर गई। मृत्यु मुझे समझ नहीं आती। क्या करना चाहिए जीवन में? बहुत भारी सवाल है। प्रेम का बुलावा कब आता है? खोजना थका देता है। अभी भी कोई धुन नहीं सुनायी दे रही जिसे सुनकर अंधेरा पार कर सकूँ। अंकुर बनकर रहना अब बहुत पीड़ा देता है।
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मज़ा सिर्फ़ चढ़ने का है, पहाड़ की चोटी पर कुछ नहीं धरा है। मुझे ज्योतिर्लिंग के नज़दीक बैठना था लेकिन भीड़ ज़्यादा थी। पण्डित ने कोई दया नहीं दिखायी। ‘भगतजी चलिए!’ शंकराचार्य की समाधी आपदा में बह गयी थी। अब वहाँ मंदिर बन रहा है। कितना महान जीवन रहा शंकर का। प्रेम से भरी ईर्ष्या होती है उनके जीवन से। मुझे भी जागना है शंकर की तरह। मन्दाकिनी के किनारे आँखें मूँदे बैठ जाता हूँ। धूप चेहरे पर सुहाती है। पिछले साल हर्षिल में भागीरथी में स्नान किया था, इस यात्रा में अलकनंदा और मन्दाकिनी का भी स्पर्श पा लिया। ऋषिकेश में पहली बार गंगा को छुआ था। कितना जीवंत स्पर्श होता है नदियों का। नदी की आवाज़ और धूप की छूअन से शरीर हल्का लगने लगा। ध्यान से बाहर आते ही आनंद विस्तार से मुलाक़ात होती है। चमक रहा है केदार की धूप में। साथ में एक सुन्दर लड़की है, जो बताती है कि इसके बाद वे बद्रीनाथ होकर तुंगनाथ जाएँगे। मुझे भी करनी है पंचकेदार की यात्रा। शायद अगले साल संयोग बने। आनंद विस्तार मुझे गले लगाते हैं और ऋषिकेश आने का निमंत्रण देते हैं। बादल नीचे उतर रहे हैं। मेरे पैरों की आत्मा ने समाधी लगा ली है, सुन्न पड़े हैं। पहाड़ की ढलान पर शॉल ओढ़कर घास पर सो जाता हूँ। हेलीकॉप्टर ऊपर से राक्षस जैसी आवाज़ें निकालते हैं। सब कुछ शीतल हो रहा है। मृत्यु का हल्का-सा आभास। बारिश की बूँदें गिर रही हैं। काश, बर्फ़बारी देख पाऊँ!
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गौरीकुण्ड में सुबह का एक सपना…
आधी नींद खुली है। आधा अवचेतन में हूँ। ख़ुद पर दया आती है, बहुत बुरा लग रहा है। क्यों लग रहा पता नहीं? भाषा मर गयी है, सिर्फ़ भाव है। तभी डर का भाव हावी हो जाता है। एक कमरेनुमा आकृति दृश्य में आती है। मुझे खींचती है वो आकृति अंधेरे में। एक विचार कि, दरवाज़ा खुलते ही मैं पाताल में गिर जाऊँगा। रोंगटे खड़े हो जाते हैं।अचानक थोड़ा और जाग जाता हूँ। अब मैं सपने पर हावी हूँ। एक घण्टी बजती है। कमरे पर प्रकाश पड़ता है। कमरा मन्दिर में तब्दील हो जाता है, मूर्तियाँ निकलती हैं उसकी दीवारों से, मैं रोता हुआ अंदर चला जाता हूँ। श्रद्धा के सहारे लटक जाता हूँ पाताल में।
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