‘हलाला’, ‘बाबल तेरा देस में’, ‘रेत’, ‘नरक मसीहा’, ‘सुर बंजारन’, ‘वंचना’, ‘शकुंतिका’, ‘काला पहाड़’ के लिए चर्चित कथाकार भगवानदास मोरवाल ने हिन्दी साहित्य में अपनी एक अलग जगह बनायी है। हाल में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इनका नया उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’ भारत में तुग़लक़, सादात, लोदी और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना और इसके बाद इनके द्वारा मेवातियों पर किए गए बर्बर अत्याचारों; और मेवात में मचायी गई तबाही का दस्तावेज़ है। इतिहास, कल्पना और क़िस्सागोई की दिलचस्प संगत में पगा यह उपन्यास पाठक को इतिहास की उन उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर लाकर छोड़ देता है, जिससे वह अब तक पूरी तरह अनजान था। प्रस्तुत है इसी उपन्यास का एक अंश—
शाम के सुरमई उजाले में बड़ी सावधानी बरतते हुए चम्पा डूमनी ने क़िले के उत्तरी छोर पर झाड़ियों की ओट में एक टोकरी में राख भरकर रख दी। टोकरी रखने से पहले उसने क़िले से नीचे झाँककर अच्छी तरह नीचे का जायज़ा लिया कि अगर यहाँ से टोकरी को नीचे फेंका जाएगा, तो वह कहाँ जाकर गिरेगी। उधर साँझ घिरते ही सरदार बहादुर नाहर अपने सिपाहियों की एक टुकड़ी के साथ क़िले की जड़ में, बड़े-बड़े पत्थरों की खोह में आकर छिप गया और इन्तज़ार करने लगा चम्पा डूमनी के इशारे का।
मशालों की बल खाती लौ के साथ धीरे-धीरे ढोल-नगाड़ों का शोर तेज़ होने लगा। इस शोर के बीच बरगद के नीचे प्रस्थापित दुर्गा की प्रतिमा के चारों ओर नशे में चूर निकुम्भों ने परिक्रमा लगानी शुरू कर दी। इधर, ख़ुशी से किलकते गगनभेदी शोर के बीच, चम्पा डूमनी की नज़र रोज़ाना की तरह पल-पल आगे बढ़ती गतिविधियों पर टिकी हुई है। उसकी निगाह उस क्षण पर टिकी हुई है, जब उसे राख से भरी टोकरी को इस अंधेरे में क़िले से नीचे फेंकना है। इधर निकुम्भ बलि की तैयारियों में डूबे हुए हैं, उधर बड़ी सतर्कता के साथ चम्पा डूमनी धीरे-धीरे दबे पाँव क़िले के उत्तर दिशा की तरफ़ बढ़ रही है। चम्पा डूमनी अभी राख से भरी टोकरी के पास पहुँची ही थी कि उसने देखा, नाचते-गाते निकुम्भों ने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र एक-एक कर एक तरफ़ रखने शुरू कर दिए हैं। चम्पा को मानो इसी मौक़े की तलाश थी। कुछ देर बाद उसने राख से भरी टोकरी उठायी, फेफड़ों में ढेर सारी हवा भरी और दोनों हाथों से उसे पूरी ताक़त के साथ क़िले से नीचे फेंक दिया। टोकरी हवा में कुलाँचे भरती हुई और राख को उड़ाती हुई तेज़ी से ज़मीन की ओर बढ़ने लगी। कुछ ही पलों में वह ज़मीन पर आ गिरी। इधर क़िले के नीचे अरावली के विशाल पत्थरों की खोह में छिपा बहादुर नाहर और उसके लड़ाके मानो इसी इशारे का इन्तज़ार कर रहे थे। उन्होंने जैसे ही अपने पास तेज़ी से आकर गिरी राख की टोकरी को देखा, वे तुरन्त हरकत में आ गए।
इधर बरगद के नीचे प्रस्थापित देवी दुर्गा की प्रतिमा के चारों तरफ़ परिक्रमा लगाते निकुम्भों ने एक-एक कर अपने सारे अस्त्र-शस्त्र रख दिए। अब सब देवी के सामने एकत्रित हो गए। बलि-वेदी पर घुटनों के बल बैठे, बलि के लिए लाए गए पीछे बँधे हाथों वाले अधेड़ शूद्र का पूरा जिस्म मारे भय के थर्राने लगा। बलि चढ़ानेवाला निकुम्भों का पुरोहित पाठ-पूजा की रस्म पूरी करने के बाद, सर क़लम करने से पहले गँड़ासे को और पैना करने लगा। जैसे-जैसे गँड़ासे की धार पैनी होने लगी, ढोल-नगाड़ों की आवाज़ और नाचते-गाते उन्मादी निकुम्भों के पाँवों की गति भी बढ़ने लगी।
जैसे ही बलि की सारी तैयारियाँ पूरी हुईं, पूरी चपलता के साथ एकाएक धड़धड़ाती अनजान हथियारबन्द टुकड़ी ने क़िले पर धावा बोल दिया। जब तक निकुम्भों की कुछ समझ में आता, मशालों की रोशनी में चारों तरफ़ मार-काट मच गई। जिस देवी दुर्गा के सामने एक निरीह शूद्र की बलि चढ़नी थी, देखते-ही-देखते उसके सामने लहू से नहायी निकुम्भों की लाशें बिछ गईं। क़िले का पूरा अहाता जैसे किसी छोटे-से रक्त-कुंड में तब्दील हो गया। जो इस संहार से बच गए, उनमें से कुछ ने क़िले से कूदकर जान दे दी और जो बच गए, वे अंधेरे का फ़ायदा उठा जान बचाकर भाग गए। जिस क़िले पर थोड़ी देर पहले निकुम्भों का क़ब्ज़ा था और जो ढोल-नगाड़ों की थापों पर नाच-गा रहे थे, उस पर अब कोटला के ख़ानज़ादा बहादुर नाहर और उसके लड़ाकाें का आधिपत्य हो गया।
क़िले पर कुछ शान्ति हुई तो एक लड़ाके ने बलि के लिए लाए गए अधेड़ शूद्र के रस्सी से बँधे हाथ खोल दिए। मुक्त होने के बावजूद मारे भय के वह अब भी काँप रहा है। उसे अपनी आँखों पर यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि वह इस समय ज़िन्दा है।
“अब डरने की कोई बात नहीं है।” ख़ानज़ादा बहादुर नाहर ने शूद्र को तसल्ली देते हुए बोला।
अपने सर पर मण्डराती मौत से उबरने के बाद अधेड़ शूद्र के जिस्म में हल्की-सी जुम्बिश हुई। मारे भय के जो देह निश्चेष्ट और सुन्न थी, उसकी शिराओं में अचानक जैसे ख़ून ठहाठा मारकर दौड़ने लगा। एक अप्रत्याशित जीवनदान मिलने के बाद उसने पहले ख़ुद को सीधा किया और फिर रोते हुए सरदार बहादुर के पैरों से लिपट गया।
इस दृश्य को देख चम्पा डूमनी मारे ख़ुशी के आसमान की ओर दोनों हाथ उठाकर बोली, “हे मेरे दातार सरदार बहादर नाहर, तेरी जय-जयकार! आज तूने एक माँ का कलेजा ठण्डा कर दिया। जुग-जुग जिओ! ख़ाँज़ादों की पगड़ी ऐसे ही बुलंद रहे मेरे सरदार बहादर!”
“ख़ाँज़ादों का बुलंद क़ायम रहे मेरे सरदार बहादुर!” चम्पा डूमनी के बाद वही अधेड़ शूद्र पूरे जोश के साथ बोला, जो बलि होते-होते बच गया था। उसकी देह में न जाने कौन-सी दैवीय शक्ति प्रवेश कर गई।
जवाब में ख़ानज़ादा बहादुर नाहर कुछ नहीं बोला। बस, अपने सामने मशाल की लौ में भीगी और दुआएँ देती चम्पा डूमनी, तथा मौत के जबड़े से बचकर आए अधेड़ शूद्र के चेहरे पर आते-जाते ख़ुशी के भावों को देखता रहा।
“डूमनी, आज के बाद इस क़िले पर किसी भी अछूत की बलि नहीं चढ़ेगी। अब तुम सब बेफ़िक्र होकर जीओ!” ख़ानज़ादा बहादुर नाहर ने डूमनी को आश्वस्त करते हुए कहा।
“बस, एक छोटी-सी अरज और है मेरे दातार! बुरा ना मानें तो कहूँ?”
डूमनी ने जिस तरह निवेदन किया बहादुर नाहर से पूछे बिना नहीं रहा गया, “हाँ बोल!”
“क़िले की जिस जगह से आपकी इस दासी ने राख की टोकरी नीचे फेंकी है, बस, उस जगह के छोटे-से टुकड़े को इस डूमनी के नाम कर दो, तो आपकी बड़ी महर होगी मेरे सरदार बहादर!” चम्पा डूमनी हाथ जोड़ते हुए बोली।
“तेरे नाम कर दूँ?” चम्पा डूमनी की गुज़ारिश भरी इस माँग पर चौंकते हुए बहादुर नाहर ने पूछा।
“मेरा मतलब है सरदार बहादर कि उस जगह का नाम इस डूमनी के नाम पर रख दो!”
“मैं कुछ समझा नहीं?”
“सरदार बहादर, जब-जब आपकी रिआया इस क़िले पर आएगी और उस जगह को देखेगी, जहाँ से मैंने राख की टोकरी फेंकी थी, तो वे कहेंगे कि देखो यही वह जगह है जहाँ से एक डूमनी ने कोटला सरदार बहादर नाहर की तरफ़ टोकरी फेंकी थी।”
चम्पा डूमनी की इस माँग पर ख़ानज़ादा बहादुर नाहर से तुरन्त कोई उत्तर देते नहीं बना।
“एक ग़रीब की हाय का क्या असर होता है, कम-से-कम दुनिया तो जान लेगी।” फिर कुछ क्षण रुककर चम्पा डूमनी बोली, “सरदार बहादर, ख़ाँज़ादों के इस एहसान का बखान हम डूम सदा करते रहेंगे।”
“ठीक है। उस जगह का नाम मैं आज ही रख देता हूँ और उसका नाम होगा—डूमनी की दाँता।”
“जुग-जुग जिओ मेरे सरदार बहादर। यह इस डूमनी की आत्मा से निकली हुई दुआ है कि जब-जब ख़ाँज़ादों का नाम लिया जाएगा, तब-तब इस डूमनी और इस जगह को भी याद किया जाएगा। आपके सहारे हम डूमों को भी लोग याद कर लेंगे।” चम्पा डूमनी दुआएँ देती हुई क़िले से चली गई।
इसके बाद ख़ानज़ादा सरदार बहादुर नाहर के सिपाहियों ने, अहाते में पड़ी निकुम्भ राजपूतों की लाशों को उठाया और उन्हें क़िले से इधर-उधर नीचे फेंक दिया। अपने सिपाहियों को क़िले में तैनात कर ख़ानज़ादा सरदार बहादुर नाहर रात में ही वापिस कोटला के लिए रवाना हो गया। जो क़िला देवी दुर्गा की स्तुति में गाए जानेवाले गीतों के साथ, ढोल-नगाड़ों की थापों से गूँज रहा था, वह जहाँ-तहाँ जलती मशालों की रोशनी में पहरा देती ख़ामोश परछाइयों की निगहबानी में ऊँघने लगा।
वंदना राग की किताब 'बिसात पर जुगनू' से किताब अंश