किताब अंश: ‘तोत्तो चान’

माँ की चिन्ता का एक कारण था। तोत्तो-चान ने अभी हाल में ही स्कूल जाना शुरू किया था। पर उसे पहली कक्षा में ही स्कूल से बाहर निकाल दिया गया था।

अभी सप्ताह भर पहले ही तो सब हुआ था। माँ को तोत्तो-चान की कक्षा-शिक्षिका ने बुलावा भेजा था— “आपकी बेटी पूरी कक्षा को गड़बड़ा देती है। आपको उसे किसी दूसरे स्कूल में ले जाना होगा।”

ठण्डी साँस छोड़ते हुए उस सुन्दर युवा शिक्षिका ने कहा था, “मैं तो अपनी सहनशक्ति की सीमा पार कर चुकी हूँ।”

माँ घबरा गयी। ऐसा क्या किया होगा तोत्तो-चान ने जिससे पूरी कक्षा गड़बड़ा जाए? वह हैरान थी।

बौखलाहट में शिक्षिका अपनी पलकें झपकाने लगी। अपने कटे हुए छोटे बालों में उंगलियाँ फिराते हए उसने समझाया, “पहली बात तो यह है कि वह दिन में सैंकड़ों बार अपनी मेज़ खोलती है। मैंने बच्चों से कह रखा है कि वे बिना कारण अपनी मेज़ें न खोलें। लेकिन, आपकी बिटिया बराबर कुछ न कुछ निकालती या रखती रहती है। अपनी कॉपी निकालती-रखती है। अपनी पेंसिल की डिब्बी. अपनी किताबें, हर चीज़ जो उसकी मेज़ में हो। मानिए, हमें अक्षर लिखने हों तो आपकी बिटिया मेज़ खोलकर कॉपी निकालती है, फिर धड़ाक से ढक्कन बन्द करती है। तब वह फिर मेज़ खोलती है। इस बार पेंसिल निकालती है और फिर जल्दी से उसे बन्द करती है। तब वह कॉपी पर ‘अ’ लिखती है। अगर उसने ‘अ’ गन्दा या ग़लत लिखा हो तो वह फिर मेज़ खोलती है, और इस बार रबड़ निकालती है। फिर ढक्कन बन्द करती है। अक्षर मिटाती है। ढक्कन खोलकर रबड़ अन्दर रखती है और फिर मेज़ बन्द करती है। यह सब वह बड़ी तेज़ी से करती है। जब वह ‘अ’ लिख चुकी होती है, तब वह एक-एक कर हर चीज़ वापस रखती है। पेंसिल वापस रखती है, ढक्कन बन्द करती है। फिर खोलती है, कॉपी वापस रखती है। तब फिर ढक्कन बन्द करती है। जब दूसरे अक्षर की बारी आती है तो वह यह सब फिर दोहराती है। पहले अपनी कॉपी, फिर पेंसिल, फिर रबड़ निकालती है। हर बार हरेक चीज़ के लिए वह अपनी मेज़ खोलती और बन्द करती है। मेरा तो दिमाग़ भन्ना जाता है, लेकिन मैं उसे डाँट भी नहीं सकती। उसके पास हर बार खोलने-बन्द करने का कारण जो होता है।”

अब शिक्षिका की पलकें तेज़ी से झपकने लगी थीं। मानो वह मन ही मन पूरा दृश्य फिर से याद कर रही हो।

अचानक माँ को समझ में आ गया कि तोत्तो-चान क्यों बार-बार अपनी मेज़ खोलती, बन्द करती होगी। पहला दिन स्कूल में बिताकर तोत्तो-चान उत्साह से भरी घर लौटी थी। उसने ऐलान किया था, “मेरा स्कूल बहुत अच्छा है। पता है, घर में जो मेज़ है उसका ड्राअर खींचना पड़ता है। पर हमारे स्कूल में मेज़ पर एक ढकना है, जिसे उठाना पड़ता है—बिल्कुल एक डिब्बे की तरह। उसमें ढेरों चीज़ें रखी जा सकती हैं। बड़ा ही मज़ेदार है।”

माँ अपनी बिटिया को मेज़ खोलने-बन्द करने में मिलने वाले आनन्द की कल्पना करने लगी। माँ को यह भी नहीं लगा कि यह कोई भारी भूल या शैतानी हो। मेज़ का नयापन ख़त्म होते ही तोत्तो-चान ऐसा करना बन्द भी कर देती। पर शिक्षिका से उसने यह सब नहीं कहा। सिर्फ़ इतना ही कहा, “मैं उससे इस बारे में बात करूँगी।”

शिक्षिका की आवाज़ अब कुछ तीखी हो गयी। उसने आगे कहा, “अगर इतना ही होता तो शायद मुझे बुरा न लगता।”

शिक्षिका आगे की ओर झुकी। माँ झिझककर पीछे हट गयी।

“जब वह अपनी मेज़ के ढक्कन से शोर नहीं मचा रही होती तब वह खड़ी रहती है। पूरे समय।”

“खड़ी रहती है? कहाँ?” माँ ने आश्चर्य से पूछा।

“खिड़की में।” शिक्षिका ने नाराज़ होते हुए कहा।

“खिड़की में क्यों खड़ी रहती है?” माँ ने विस्मय से पूछा।

“ताकि वह सड़क पर गुज़रने वाले साज़िन्दों को बुला सके।” लगभग चीख़ते हुए शिक्षिका ने बताया।

इसके बाद शिक्षिका ने जो कहानी सुनायी, उसका सार कुछ यों था : पूरे एक घण्टे तक अपनी मेज़ के ढक्कन को उठाने-पटकने के बाद तोत्तो-चान अपनी जगह छोड़ खिड़की के पास जा खड़ी होती और बाहर झाँकती रहती। जब शिक्षिका मन ही मन यह सोचने लगती कि भले ही वह खिड़की के पास खड़ी रहे, कम से कम शान्त तो रहे, तब अचानक तोत्तो-चान चटकीले कपड़े पहने, सड़क पर से गुज़रने वाले साज़िन्दों को ज़ोर से आवाज़ लगाती। ऐसा वह इसलिए कर सकती थी क्योंकि उनकी कक्षा निचले तल्ले पर थी और कमरे की खिड़की सड़क की ओर खुलती थी। सड़क और खिड़की के बीच पौधे थे पर उनके पार सड़क चलते किसी भी इंसान से बात करना मुश्किल न था। जब तोत्तो-चान बुलाती तो साज़िन्दे ठीक खिड़की के पास आ जाते। तब तोत्तो-चान पूरी कक्षा के बच्चों में ऐलान करती, “वे आ गए हैं।” तब सारे के सारे बच्चे अपनी जगह से उठ खिड़की के पास सिमट आते और शोर मचाने लगते।

“कुछ बजाइए!” तोत्तो-चान कहती। और तब साज़िन्दों की टोली, जो शायद चुपचाप स्कूल के सामने से गुज़र जाती, अपनी शहनाई, घण्टा, ढोल आदि से बच्चों का मन बहलाने लगती। और ऐसे में शिक्षिका के पास धीरज धर शोर-शराबे के ख़त्म होने का इन्तज़ार करने के अलावा कोई चारा न रहता।

जब संगीत ख़त्म होता, साज़िन्दे चले जाते, तब सारे बच्चे अपनी-अपनी जगह लौट आते—आलावा तोत्तो-चान के। जब अध्यापिका पूछती, “तुम अभी भी खिड़की के पास क्यों खड़ी हो?” तब तोत्तो-चान बड़ी गम्भीरता से जवाब देती, “शायद कोई दूसरी टोली आ जाए। कितना बुरा होगा, अगर वे आएँ और चले जाएँ और हमारी नज़र ही उन पर न पड़े।”

“आप सोच सकती हैं कि यह सब कितनी-कितनी बाधाएँ पैदा करता है।” शिक्षिका आवेग में भर कर बोल रही थी।

माँ के मन में शिक्षिका के लिए सहानुभूति जगने ही लगी थी कि वह तीखी आवाज़ में बोली, “और इसके अलावा…”

“इसके अलावा और क्या करती है वह?” अब माँ का दिल सच में बैठने लगा था।

“इसके अलावा?” शिक्षिका ने ज़ोर से कहा, “अगर मैं यही गिन पाती कि वह क्या-क्या करती है तो मुझे आपसे उसे किसी दूसरे स्कूल में ले जाने को न कहना पड़ता।”

अपने को कुछ संयत करते हुए शिक्षिका ने सीधे माँ की ओर देखा, “कल तोत्तो-चान रोज़ की तरह खिड़की के पास खड़ी थी। मैं अपना पाठ पढ़ाती रही। सोचा कि वह शायद साज़िन्दों के इन्तज़ार में खड़ी होगी। अचानक आपकी बेटी ने किसी से पूछा, “क्या कर रही हो?”

मैं ख़ुद जहाँ थी, वहाँ से मुझे कोई दिखा ही नहीं, इसलिए मैं जान नहीं पायी कि आख़िर वह किससे बातें कर रही है। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया। मुझे लगा कि वह सड़क पर खड़े किसी व्यक्ति से नहीं, ऊपर किसी से बात कर रही है। मेरी जिज्ञासा बढ़ी। मैं उत्तर सुनने की चेष्टा करने लगी। पर जवाब आया ही नहीं। पर आपकी बेटी बार-बार अपना प्रश्न दोहराती रही, “क्या कर रही हो?”

इतनी बार कि पढ़ाना ही मुश्किल हो गया। मैं यह देखने गयी कि आख़िर वह प्रश्न कर किससे रही है। जब खिड़की से सिर निकाल ऊपर की ओर देखा तो पाया कि वहाँ ओरी पर घोंसला बनाती दो अबाबील चिड़ियाँ थीं। वह अबाबीलों से बात कर रही थी। मैं बच्चों को समझती हूँ। यह भी नहीं कहना चाहती कि अबाबीलों से बात करना बेवक़ूफ़ी है। पर फिर भी मुझे लगता है कि कक्षा के बीच में अबाबीलों से यह पूछना कि वे क्या कर रही हैं, क़तई ग़ैर-ज़रूरी है।”

माफ़ी माँगने के लिए माँ का मुँह खुले, इसके पहले ही शिक्षिका ने आगे कहा, “एक और घटना है—ड्राइंग की कक्षा की। मैंने बच्चों से कहा कि वे जापानी झण्डा बनाएँ। बाक़ी बच्चों ने सही बनाया, पर आपकी बेटी ने नौसेना का झण्डा बनाया। आप जानती हैं ना, वह किरणों वाला झण्डा? मैंने सोचा चलो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। पर अचानक वह झण्डे के चारों ओर झालर बनाने लगी। वैसी झालर जो युवक दलों के झण्डों पर होती है। शायद उसने कहीं वैसा झण्डा देखा होगा। मैं कुछ समझू, उसके पहले ही उसने ऐसी झालर बना डाली कि पूरा काग़ज़ उससे भर चुका था। इसलिए जब उसने झालर में भरने के लिए गहरे पीले रंग के क्रेयन-चाक उठाए तो उसने सैकड़ों छोटे-छोटे निशान काग़ज़ के बाहर तक बना दिए। मेज़ इतनी गन्दी हो गयी कि रगड़े साफ़ न हो। बस सौभाग्य यही था कि उसने झालर तीन तरफ़ ही बनायी।”

“तीन तरफ़ ही क्यों?” माँ ने कुछ आश्चर्य से पूछा।

शिक्षिका थक चली थी, फिर भी माँ पर तरस खाते हुए उसने समझाया, “चौथी ओर उसने डण्डा बनाया था, सो झालर झण्डे के केवल तीन तरफ़ ही थी।”

माँ कुछ आश्वस्त हुई, “मैं समझी, सिर्फ़ तीन तरफ़।”

इस पर शिक्षिका ने बड़े धीरे-धीरे पर शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा, “पर उस डण्डे का भी काफ़ी हिस्सा बाहर निकल गया था और अभी तक उसकी मेज़ पर बना हुआ है।”

इसके बाद शिक्षिका खड़ी हो गयी। बर्फ़ीली आवाज़ में उसने अपना आख़िरी वार किया, “मैं अकेली ही परेशान नहीं हूँ। साथ के कमरे में जो शिक्षिका है, उसे भी परेशानी हुई है।”

अब माँ को कुछ करना ही था। दूसरे बच्चों के साथ यह अन्याय था। उसे दूसरा कोई स्कूल खोजना होगा, ऐसा जहाँ उसकी नन्ही को वे समझें, जहाँ उसकी बेटी को वे दूसरे बच्चों के साथ रहना-पढ़ना सिखा सकें।

जिस स्कूल की ओर अब वे जा रही थीं, वह माँ को काफ़ी खोजबीन के बाद मिला था।

माँ ने तोत्तो-चान को यह नहीं बताया कि उसे स्कूल से निकाल दिया गया है। वह जानती थी कि तोत्तो-चान यह समझ ही नहीं पाएगी कि उसने कोई भूल की है। किसी भी तरह की गाँठ वह अपनी बेटी के मन में नहीं बाँधना चाहती थी। अतः माँ ने निश्चय किया कि जब तक तोत्तो-चान बड़ी नहीं हो जाती, वह उसे कुछ भी नहीं बताएगी। माँ ने उससे इतना भर कहा था, “एक नये स्कूल में जाना तुम्हें कैसा लगेगा? मैंने सुना है कि वह बड़ा अच्छा स्कूल है।”

“ठीक है।” कुछ सोचने के बाद तोत्तो-चान ने कहा था। “पर…”

“अब इसके मन में क्या है?” माँ ने सोचा, “कहीं यह समझ तो नहीं गयी है कि इसे स्कूल से निकाल दिया गया है?”

पर क्षण भर में ही तोत्तो-चान ने उल्लास में भर कर पूछा था, “क्या तुम्हें लगता है कि साज़िन्दे नये स्कूल में भी आएँगे?”

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