किस जाति या भाषा का मंसूबा तुम हो
ठीक है पर इतनी बड़ी देह में कहीं रोयाँ भर वह जगह है
जिस पर उँगली रख तुम कह सको
यहाँ की पुलक में आदमी का पसीना है?
बदलते मौसमों के बीच मलमास भी समय है
मगर वर्ष के इतिहास में
अपने बीतने का कोई अर्थ नहीं रखता
करोड़ों की संख्या में क्या तुम भी वही नहीं हो?

तुम्हारे ठहाके की ढोल में
तुम्हारा खोखलापन बोलता है
तुम्हारा जुनून या तो सौक में बढ़ा हुआ नाख़ून है
या दातौन से खुदा तुम्हारे दाँत का स्याह ख़ून।
दर‍असल तुम न हँस सकते हो न रो
दोनों के आँसू चुपचाप पी सकते हो।
झुकते-झुकते तुम धनुष हो गए हो
जिस पर तीर कोई और साध रहा है…

आदमी का आभास फड़फड़ाता बिजूखा जैसा
तुम्हें चतुर सियार समझ रहे हैं
किसी मौसमी बयार से खड़खड़ा रहे हो
जिसके रुकते ही तुम अपनी हरकत में रुक जाओगे
बहुत हुआ तो रात में
अपनी परछाँई से चाँदनी सहलाओगे…
बात मानो सिर्फ़ एक बार अपनी हक़ीक़त हो जाओ
आदमी में आदमी रखाने वाला
बिजूखा बन जाओ
दोनों हाथ ऊपर उठाके देखो
तुम्हारे ऊपर लगी तमाम पीली आँखें
अपनी माँदों में घुस जाएँगी।
हाथ होकर एक बार हाथ होना सीखो तो
न सही उसमें कोई नारा, कोई शब्द, कोई गीत
बड़े ज़ोर से चीख़ो तो
तुम पर घात लगाए सन्नाटे का दाँत टूट जाएगा
और तुम्हारी इसी आवाज़ से
इतिहास में दबा जीवनमय संगीत का
सोता ज़रूर फूटेगा
तब आदमी अपने हाथ की नाप से
बाहर होकर वह ख़ुदा हो जाएगा
जो आदमी को रखाने वाले आदमी को
एक जागता हुआ बिजूखा बनाता है।

मानबहादुर सिंह की कविता 'बैल-व्यथा'

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