अनुवाद: डॉ भारतभूषण अग्रवाल
किराये का घर रूखी ज़मीन की तरह है, जड़ें जमाने में
बहुतेरी गर्मियाँ, बरसातें और जाड़े लग जाते हैं
सोच रहा हूँ कविता के हिस्से में कौन-सा कमरा आएगा,
मन को किधर बिखेरूँगा, पूरब में या पश्चिम में
यहाँ उत्तर की तरफ़ खुला है, फिर भी फाल्गुन की रिमझिम में
मन और हवा गन्ध की बहार से डोल उठते हैं,
झरझराता नीम टुनटुन चिड़िया का महीन गला खोल देता है,
घुग्घू और बुलबुल झुण्डों में ‘दाना चुगने आते हैं’
तोते परम सुख से तीती निबौरियाँ ओठों में धरकर
खाते हैं और चुपचाप सोचते रहते हैं
इनके अलावा शालिक हैं, कौए हैं, कितने ही दुलार से
और पक्षियों को देखो, ये बराबर चीख़ते रहेंगे
किराये का घर है रूखी ज़मीन, ऊसर, भूदान की तरह,
भोगने बसने के योग्य नहीं, पर उसे पाने में भी झंझट,
दलाली सलामी वग़ैरह की माँगों से परेशान मैं फ़िलहाल
उत्तर के कमरे में आ जाता हूँ, निर्विकार नीम फूलों से लदा है..