जब कई साँझ जला और
स्याह कर कई सवेरे,
मैं मान लेती हूँ ख़ुद से हार
और अनजाने में पुकार उठती हूँ
एक बार फिर तुम्हारा नाम,
तब तुम्हारा यह कहना कि
‘मैं दूर कब था?’
इतना अचम्भित नहीं करता
जितना मेरा इस पर विश्वास कर लेना
तुम्हें जितना खोती जाती हूँ
तुम्हें पाने की लालसा उतनी ही
मुखर होती जाती है,
इस मुखरता से तुम गर्वित हो
ओढ़ लेते हो तटस्थता का
और भी सघन आवरण
मैं जानती हूँ मेरे आँसू
तुम्हारे शुष्क हृदय में
कोई कोंपल नही उगा पाएँगे,
मैं जानती हूँ सम्वाद और
असम्वाद का समभाव भी,
क्योंकि तुमने सदा वर्णमाला के
कुछ वर्णों को व्यवस्थित कर
बोला भर है,
भावों की लिपि सदा मन बहलाने
का साधन मात्र रहीं
लेकिन मैं मूँद लेती हूँ आँखें
और लगा देती हूँ पूर्णविराम
हर प्रत्यक्ष संशय पर
क्योंकि मैं तुम्हें बस उतना ही
जानना चाहती हूँ जितना जानकर
तुम मेरी जान बने रह सको,
मेरे जीने के लिए
तुम्हारी शुचिता का भ्रम आवश्यक जो है!
तभी कहती हूँ अब किसी को भी
चाहना तो बस इतना चाहना कि
तुम्हारे संग न होने पर भी
उसकी जीने की चाह दम न तोड़े।
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