शेल्फ की वो किताबें
आकर एक बार लेकर जाना
कुछ पुरानी यादें हैं उनमें
गुजरता हूँ
उनके पास से तो
ठहर जाता है दिन मेरा
तुम
आते वक्त मेरी हँसी ले आना
तुम्हारे पीछे-पीछे
निकल गयी थी
तब बड़ी मिन्नत पर भी नहीं लौटी
तुम्हारी सोहबत का असर है
उसपर,
मुझसे ज्यादा तुमसे ही
लिपटी रहती है आजकल हरदम
घर का स्टूल भी मैंने
अब दे दिया है कबाड़ख़ाने
मेरे सहारे ही चढ़ना पड़ेगा
सेल्फ़ तक तुम्हें
इस बार तुम झूठ-मूठ का गिरना
इस बार भी मैं तुम्हें
सचमुच का सम्भाल ही लूँगा
तुम्हारे जाने के बाद गिरता रहता हूँ
तुम सम्भाला करती थीं
मुझे
जैसे पृथ्वी ने सम्भाल रक्खा है अपना चाँद
जैसे धूप ने सम्भाला है अपना सूरज
जैसे नदी की तेज धार को बाँध ने
सागर की लहरों को
विस्तार देते किनारों ने
उबलती हुई चाय को चायवाले ने
और
प्रेमकविता को अपनी किताबों में संजोकर रखते हैं
प्रेम में डूबे युवा
जैसे तितली सम्भालती है रंग अपना
जैसे मधुमक्खी अपनी मधकन
छोटा बच्चा अपनी नयी पेन्सिल
जैसे चकोर अपने अन्दर बरसाती पानी
जैसे काला कौवा अपने अन्दर नींद
किताबों के बहाने बुला रहा हूँ
शायद तुम्हें इस बार रोक सकूँ
जैसे सैटेलाईट रुक जाता है
एक कमांड से
जैसे गाँव की चौराहे की
नेताजी वाली बुत
चुपचाप खड़ी है
कितने सालों से
बिना कोई सवाल पूछे
तुम भी रुक जाना
जैसे
रुक सा गया था जीवन मेरा
तुम्हारे लौटने तक…।