कितना खोखला लगता है तुम्हारा वजूद
जब अपने ही द्वारा बनायी व्यवस्था की
देने लग जाते हो तुम दलीलें,
तुम्हारी सामन्ती परिभाषाएँ
कितनी ऊपरी—
ख़ुद की रक्षा करती हुईं
बड़ी सहजता से नकारते हुए तुम
प्रेम की आवश्यकता को
जो सिर झुकाए बनती है
तुम्हारे अन्तरंग क्षणों की सख़्त ज़रूरत
तुम्हारी ही सहूलियत और मर्ज़ी से
या कभी-कभार
तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा—
बहुत ही मामूली लेकिन
कितना उपयोगी
तुम्हें पोषित करने का एक साधन भी तो…
समर्पण के लिए बौराई आकुलता
जन्म-जन्मान्तरों से तुम्हें
मोहित करती हुई
लेकिन तुम्हारे सामन्ती हवालों के आगे
हार कर शर्म से डूबी
अपनी ही मौत मरती हुई
देह का बौर
सूखता जाता है
बिना खिले ही
और
तुम्हारे अवसरवादी सिद्धान्तों की जड़ें
निर्ममता से रुंधती जाती है
भीतर गहरे-गहरे
फिर किसलिए उगते रहते हैं
तुम्हारी स्वार्थ की पथरीली चट्टान से
लालसाओं के कोमल हरे अंकुर
ज़िद से भरकर
ढीठाई से
और बौखलाए हुए तुम
पुनः-पुनः अपने मूल्यों को स्थापित
करने की कोशिश में
लाचारी से भरे हुए?
सुनीता डागा की कविता 'समय ही नहीं मिलता है'