किताब: ‘कितने पाकिस्तान’ – कमलेश्वर
रिव्यू: पूजा भाटिया

कमलेश्वर दारा लिखित, राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, इतिहास के गर्भ से खंगालकर निकाली गयी तमाम घटनाओं/तथ्यों को समय के हवाले से प्रस्तुत करता यह उपन्यास एक कामयाब प्रयोगवादी नॉवेल है। इसे पूरा करने में कमलेश्वर को सात-आठ साल लगे, इसे पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि वाक़ई कमलेश्वर का यह उपन्यास मील का वो पत्थर है जिसे गढ़ने में इतना समय लगना लाज़मी था।

इसका नायक है समय। समय की अदालत में पेश किया जाता है इतिहास के खण्डहरों से लाए गए उन तमाम पात्रों को जो अपने समय में होने वाली तमाम घटनाओं के ज़िम्मेदार हैं, जिनकी आँख के इशारे-भर से भविष्य के मंज़र हमेशा के लिए बेरंग कर दिए गए।

कटघरे में खड़ा इतिहास पिछली सदी की दो महत्तवपूर्ण बड़ी घटनाओं की ओर इशारा करता है- पहली, हिन्दुस्तान की आज़ादी और दूसरी, हिन्दुस्तान का बँटवारा। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन इस उपन्यास की केन्द्रीय घटना नहीं है बल्कि विभाजन इसकी केन्द्रीय घटना है। यहाँ पाकिस्तान को एक इस्तियारे की तरह इस्तेमाल किया गया है और हर तरह के, हर जगह के बँटवारे को पाकिस्तान कहा गया है। दुनिया के तमाम देशों में फैलता पहचान का संकट, हिंसा-प्रतिहिंसा, जाती, धर्म, देश, रंग जैसे तुच्छ आधारों पर होता भेद, सभ्यता, संस्कृति, भूगोल का बँटवारा, पूँजीवादियों और सामन्तों द्वारा पैदा की जा रही रुकावटें, पश्चिम की वयवस्थाओं के प्रति नाराज़गी, समाज के बने तयशुदा ढाँचे में न ढल पाने की उलझन इत्यादि इन तमाम बातों पर तथ्यों के साथ बात करता यह उपन्यास दरअस्ल समय के हवाले से हमसे पूछा गया एक सवाल है और वो सवाल है- ‘कब तक?’ कब तक आख़िर हम, सर्वश्रेष्ठ, बुद्धिजीवी मानव प्रजाति अपने तात्कालिक फ़ायदे-नुक़सान की ताक पर आने वाली नस्लों को रोने के लिए खून के आँसू, अपंग भविष्य और स्याह सपनों की विरासत देंगे? बँटवारों की कितनी क़ीमत चुकाएँगी आने वाली पीढ़ियाँ?

यह उपन्यास एक हलफ़नामा है तमाम मासूम इंसानों की असामयिक मौत का। यह एक ऐसा सवाल है जिसको सुनकर सदियों से नज़रें चुरायी जा रही हैं। यह वो दास्तान है जिसे कोई सुनना नहीं चाहता।

उपन्यास का एक मुख्य पात्र अदीब जब सलमा से कहता है-

“जब पाकिस्तान बनता है तो आदमी आधा रह जाता है। यह बिलकुल ऐसा है जैसे फूल हों पर रंग न हों, रंग हों पर गन्ध न हों, गन्ध हों पर हवा न हों यानी अहसास की रुकी हुई हवा… यही पाकिस्तान है।”

इन चन्द पंक्तियों में कमलेश्वर दुनिया के हर कोने में हर तरह के विभाजन और उससे उपजी तकलीफ़ को सहज ही परिभाषित कर देते हैं।

‘कितने पाकिस्तान’ बौद्धिक विमर्श पर लिखा एक ऐसा उपन्यास है जो अपने में प्रारम्भ से अब तक की सारी बैचेनी को समेटे है, और तमाम ऐतिहासिक सन्दर्भों और तथ्यों को सिलसिलेवार, सहज भाषा के साथ वसुधैव कुटुम्बकम् के एक धागे में पिरोता हुआ हमसे पूछता है- “यह कैसा दुःख है कि कम ही नहीं होता?!”

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