‘Kitni Batiyati Rehti Hain Striyaan’, a poem by Sunita Daga
कितना बतियाती रहती हैं स्त्रियाँ
एक-दूजी से मिलती हैं तब
उकताई-सी खड़ी रहती हैं देर तक
कहती ही जाती हैं
घर-गृहस्थी, बीमारी, चिंताएँ,
घरवालों के उलाहने, बच्चों का कौतुक,
शिकायतें, महंगाई, तीज-त्यौहार,
मायके की यादें
जैसे लबालब बहकर बहती हैं नदियाँ
ख़ाली-ख़ाली-सी होती जाती हैं
यकायक भान पर आती हैं
मुड़ जाती हैं घर की ओर
किसी अदृश्य समान धागे से बँधी स्त्रियाँ
घर में क़दम रखते ही
पुनः-पुनः घेरा बनाकर
खड़े हो जाते हैं
स्त्रियों के इर्द-गिर्द
कई-कई सर्ग
रचता जाता है कोई महाकाव्य
और
सृजन के आनंद से वंचित
फिर-फिर रिक्त होने हेतु
बतियाती ही रहती है स्त्रियाँ!