मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा ज़रूर!

अक्सर दरख़्तों के लिए
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खड़ा रहा,
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल-फूल पर इतराते
अपनी चिड़ियों में उलझे रहे

मैं आगे बढ़ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जड़ों में नहीं बदल पाया

यह जानते हुए भी
कि आगे बढ़ना
निरन्तर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख़्तों की लम्बी छायाएँ
मुझे घेरे हुए हैं…

किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा ज़रूर!

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Book by Sarveshwar Dayal Saxena:

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे, पर जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया। सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता।