मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा ज़रूर!
अक्सर दरख़्तों के लिए
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खड़ा रहा,
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल-फूल पर इतराते
अपनी चिड़ियों में उलझे रहे
मैं आगे बढ़ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जड़ों में नहीं बदल पाया
यह जानते हुए भी
कि आगे बढ़ना
निरन्तर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख़्तों की लम्बी छायाएँ
मुझे घेरे हुए हैं…
किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा ज़रूर!
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