मैं हर रोज़ खोजता
हूँ ख़ुद में सच्चाई,
सच्चाई जो हर रोज़ खो
जाती है भीड़ में कहीं,
या वो लोग चुरा लेते हैं मुझसे,
जिन्हें उसकी आदत नहीं..
मैं हर रोज़ तलाशता हूँ
अपने ज़मीर को और
देखता हूँ कि क्या वाक़ई मैं
अच्छा हूँ, या बस बनने की
कोशिश कर रहा हूँ।
ये लोग मेरे आसपास
के मजबूर कर देते हैं
मुझे एक ऐसी ज़िन्दगी
जीने पर जो मेरी है ही नहीं,
मुझे हर रोज़ तोड़ा जाता है,
पिघलाया जाता है और
फिर की जाती है जद्दोजहद
मुझे भरने की उस सांचे में जो
शायद किसी और का,
इस दबाव को सहने की क्षमता
है मुझमें, नहीं, शायद
अब नहीं है, थी कभी, पर अब,
मैं भी सोचने लगा हूँ कि शायद
वही है मेरा सांचा,
शायद मैं भटक गया हूँ
या यही राह है मेरी,
पता नहीं, मैं असमर्थ हूँ
ये जानने में भी.. पर
हर रोज़ एक बार ज़रूर
सोचता हूँ.. कि शायद ये
वो जगह नहीं, ये वो राह नहीं,
ये वो मंज़िल नहीं,
सो लग जाता हूँ कोशिश में… सही
राह तलाशने की..
हाँ मेरी कोशिश है सुधरने की।