ये लो
ताज़ा कविता
अभी अभी निकाली है
अवन से-
हाँ बेक किया है आज मैंने इसे!
चूल्हे की आग में
झुलस जाया करती थी अक्सर
काली, बेरंग, बेस्वाद कविता
कौन चाहेगा, बोलो?
दोष मन का ही था
चूल्हे के पास बैठे-बैठे
अनमना होकर अक्सर
किचन की खिड़की से कूद
बाहर आकाश को भागता था
बादल किसे नहीं भाते भला?
झूले हो बादलों में कभी?
भीग-भीग जाता था मन
ख़ुशी से कुलांचे भरता हुआ
फिर कहाँ किचन, चूल्हा!
किसे याद रहती कविता?
जलने की ‘बू’
लौटा लाती थी अक्सर
सर पर पैर रख
बदहवास दौड़ता मन
खा हज़ारों ठोकर
छलांग भर
खिड़की से कूदता
पर हाय!
तब तक तो कविता झुलसकर
काली, बदरंग बन कर
सूखी आँखों से मानो कहती हो
“रहने दो तुम!
कर दो मुझे डस्टबिन के हवाले!”
सो
ग्लानि से भरकर
आज मैंने इसे बेक किया है
अब मेरी कविता
बदरंग, बेस्वाद नहीं है।
चखोगे?
पसन्द आई ना?
मैं मुसकुराई
और मुस्कुराते हुए सोचा
अब सबकुछ परफेक्ट है
कविता का पकना
मन का बादलों में उड़ना
और ठीक समय पर लौट आना
अक नियन्त्रित टेम्परेचर
स्वाद और रंग में बनी मेरी कविता
‘संजीव कपूर’ की किसी भी
हिट रेसिपी की तरह हिट है
तभी
एक आहट सी हुई
घूम कर देखा तो
कविता डबडबाई आँखों से
मुझे ताकती हुई
आप ही बढ़ रही थी
डस्टबिन की तरफ
मैं अचम्भित
कुछ समझ नहीं पाई!