मसख़रा हँसता है धीरे-धीरे
बड़ी एहतियात के साथ
उसे पता है ठहाका लगाने पर
बहुत देर तक दुखेगा
कमर से चिपका पेट
और चरमरा उठेंगी जर्जर पसलियाँ

बब्बर शेर दिखाता है करतब
पूरी मुस्तैदी के साथ
रिंग मास्टर के हंटर की
फटकार का इंतज़ार किये बिना
दोनों को अच्छे से मालूम है
अपने-अपने किरदार

तोते के खेल दिखाती लड़की की
शफ्फाक जाँघें कँपकपाती रही ठण्ड से
वह कम्बल में दुबककर
चुस्की ले ले पीना चाहती है
गर्म भाप से अंटी चाय
और दिनभर की थकन

पतली रस्सी पर थिरकते
नर और मादा की शिराओं में
चरमोत्कर्ष पर है उत्तेजना
वे एक दूसरे की ओर देखते
गा रहे हैं मगन होकर
प्यार का कोई आदिम गीत

सरकस के पंडाल से
रिस रहे हैं तमाशबीन
सधे हुए घोड़े ऊँघ रहे हैं
अपनी बारी का इंतज़ार करते
किसी को नहीं पता
कल सुबह कैसी होगी!

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : gupt.nirmal@gmail.com