यहाँ लकड़ी कटती है लगातार
थोड़ा-थोड़ा आदमी भी कटता है

किसी की
उम्र कट जाती है
और पड़ी होती धूल में टुकड़े की तरह

शोर से भरी
इस गली में
कहने और सुनने की इच्छा भी कट जाती
वह फड़फड़ाती घायल चिड़िया की तरह

जब कटती है लकड़ी
दो टुकड़ों में
कट-कटकर गिरते जाते
स्वप्न किसी के

बाज़वक़्त
जब काटा जाता कोई बेडौल तना
किसी कोटर के अन्धकार से
सहसा गिरता है बचपन

लकड़ी ही नहीं
अपनी दिनचर्या में
आदमी भी कटता है यहाँ।

 शरद बिल्लोरे की कविता 'भाषा'

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