‘Kumari’, a poem by Amrita Pritam

मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी- दो थी
एक समूची ब्याही और एक समूची कुमारी
तेरे भोग की ख़ातिर-
मुझे उस कुमारी को क़त्ल करना था
मैंने क़त्ल किया था-
यह क़त्ल, जो क़ानूनन जायज़ होते हैं
सिर्फ़ उनकी ज़िल्लत नाजायज़ होती है।
और मैंने उस ज़िल्लत का ज़हर पिया था
फिर सुबह के वक़्त-
एक ख़ून में भीगे अपने हाथ देखे थे
हाथ धोये थे-
बिलकुल उस तरह ज्यों और गँदले अंग धोने थे।
पर ज्यों ही मैं शीशे के सामने आयी
वह सामने खड़ी थी
वही जो अपनी तरफ़ से मैंने रात क़त्ल की थी
और ख़ुदाया!
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढ़ा था?
मैंने किसे क़त्ल करना था और किसे क़त्ल कर बठी।

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Book by Amrita Pritam:

अमृता प्रीतम
(31 अगस्त 1919 - 31 अक्टूबर 2005) पंजाब की सबसे लोकप्रिय लेखिका, कवयित्री व उपन्यासकारों में से एक।