क्या इसे जीना कहेंगे
कि कमरे से कई कैलेण्डर उतर गए
दीवार पर घड़ी
टिक-टिक करती दम तोड़ गई।
जाने कितनी बार
चूल्हा जला,
कितनी रोटियाँ बेली गईं चकले पर
कितने बर्तन धुले, फिर हुए जूठे।
बिस्तर में प्रियतम
कई बार ख़ुश हुए, कई बार रूठे।
पैरों में पड़ी बिवाइयाँ
बाँध गईं तन की चाल
मन उड़ता रहा पतंग-सा
अनंत में, वसन्त में।
गर्मियाँ आती रहीं, जाती रहीं।
सर्दियाँ हाड़ कँपकँपाती रहीं।
जिन सवालों पर सच्चाई से मुँह खोला
उन पर बवाल मचा
जब-जब लगायी चुप
अच्छी औरत का ख़िताब मिला।
वह जानती है
चुप्पी और चालाकी में गहरा नाता है
औरत का बोलना घर को नहीं भाता है।
चुपचाप करते रहें उसके हाथ-पाँव काम
उसके शब्दकोश में हों बस दो शब्द
‘जी हाँ’ और ‘हाँ जी’
तो ख़ुश रहें बच्चे, बड़े और माँजी।
आदर्श पत्नी-सी वह घर में आसीन रहे।
बाक़ी जगत से उदासीन रहे।
जब कभी रात में वह लेकर बैठती है किताब,
सोचती है
क्या कभी लिखा जाएगा उसका असली हिसाब।
ममता कालिया की कहानी 'बोलनेवाली औरत'