मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पन्द्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे

मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में

धरती से सब छीन मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
एक नदी चुराई, बाँध रखी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में।

अनुराधा सिंह
जन्म: 16 अगस्त, उत्तर प्रदेश। शिक्षा: दयालबाग शिक्षण संस्थान आगरा से मनोविज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में कविताएँ, अनुवाद व आलेख प्रकाशित। पत्रिकाओं के विशेषांकों, कवि केंद्रित अंकों, विशेष स्तम्भों के लिए कविताएँ चयनित व प्रकाशित। सम्प्रति मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन।