एक व्यथा जो कही नहीं गई
एक कथा जो लिखी नहीं गई
स्वाभिमान की दहेरी पर वह लज्जित रही
अंतहीन लड़ाई जो अपने अंदर लड़ी गयी
न ही स्वतंत्र व्यक्तित्व न ही अस्मिता
शुष्क हो गयी उसके चेहरे की सुष्मिता
असंख्य पतझड़ जैसे करवट ले रहे थे
स्मृतियों पर बरसों की थी उष्मिता
मरुस्थल बनी थी मन की धरा
अब बसंत भी कहाँ था हरा
लांछित हुई मन की मिथ्या
मन विरक्ति से भरा
सोने के महल में उसका सुख था
समुन्दर से गहरा लेकिन दुःख था
मर्यादाओं की चट्टान रास्ते में थी
आहत मन हमेशा सम्मुख था
चिर कुमारी विफल रही परितप्त रही
पर स्त्री की भी मन व्यथा उसने सही
ना कोई तीर उठा, ना खून बहा
फिर भी अंत तक संघर्षित रही
हे पञ्चकन्या! हे मंदोदरी (रावण की अर्धागिनी)
हर संघर्ष जीत हो ज़रूरी नहीं
हर पति राम हो ज़रूरी नहीं
इतिहास के पन्नों से तुम्हारा त्याग गुम है
क्या विवशता भी एक संघर्ष नहीं?
क्या विवशता भी एक संघर्ष नहीं?
क्या विवशता भी एक संघर्ष नहीं?