हाँ… मेरी चारपाई अब खिड़की के पास कर दो
जिससे दिखे वह डगर जिस पर वह लड़की
सिर पर सूखी लकड़ियों का गट्ठर लिए खड़ी
हरे पेड़ को नफ़रत से देख रही है।
मेरी पीठ के नीचे
इतिहास की वह मोटी पुस्तक रख दो
हाँ… अब उसकी परछाई, धूपघड़ी की सुई लग रही है—
तय है यह दिन ढल रहा है
और लड़की की साँवली ज़िन्दगी चढ़ रही है।
मेरे पास मत खड़ी हो
तुम्हें चाहने को मेरे पास वक़्त नहीं—
मेरे बारे में कुछ मत सोचो—वैसे पेट में कम
मगर मन में बहुत ज़्यादा गड़बड़ी है
पीठ पर पुरानी रीढ़ तो बिल्कुल तन के छड़ी हो गई है
जो उस लड़की को देखने-झुकने नहीं देती।
पेड़ की हरियाली पलकों को
प्यारी उँगलियों से छू रही है
पर लड़की की आँखों में—धुएँ की तरह चुभ रही है
बड़े विस्मय की घड़ी है।
तुम अपनी हरी साड़ी उतारकर आओ
मेरी नस-नस में बसन्त की बिजली दौड़ रही है
यह प्यार तो क़तई नहीं है—
महज़ देह का जंगल जहाँ से ख़ून की आवाज़ें आती हैं।
उस लड़की के कठोर स्तनों पर पसीने और गर्द की
जो परतें जमी हैं
अब उसका अजन्मा शिशु हुमककर पीने लगेगा
उस पर लिखा हुआ वह बेस्वाद वक़्त
क्या उसके गले में फँसेगा नहीं?
ज़रूर आएगा उसका समय जब उसे भी
कोई प्यार करेगा पर वह मेरी तरह से
किसी साँवली लड़की की नफ़रत भरी आँखों से
अपनी हरियाली से डरेगा नहीं
मगर तब तक तुम्हारी साड़ी तुम्हारी देह से उतर
इस खिड़की का परदा बन चुकने के बाद
उस डगर की गर्द झाड़ रही होगी
और मैं उस पेड़ की भूमिगत जड़ें खोदता रहूँगा
अलाव जला अपनी ठिठुरी पसलियाँ गरमाने को
किसी किलकारती सड़क के किनारे
ख़ुशियों के खुले चौपाल में बैठकर।
लड़की खिड़की के भीतर झाँके
इसके पहले तुम बुझ जाओ
जिससे तुममें उगा हुआ जंगल
उन सूखी लकड़ियों को न दिखे।
मुझे थोड़ा बैठा के जाओ
जिससे उठ खड़ा होने का फ़ासला कम हो जाए
जाने यह राह कब बुला ले मुझे।
पेड़ की गुप्त हरी छाहों से उड़कर
कोई भुनगा उसकी आँखों में पड़ गया है
मलते-मलते लाल होने तक मुझे जागते रहने दो
मेरा एक सपना उसके क़रीब कब से मण्डरा रहा है।
अपना चेहरा मत बिगाड़ों
यह डाह करने का समय नहीं
मुझमें तुम्हारा रूप मर रहा है।
अपनी हरियाली पर मेरी भूख मत सेंको
उधर सूखी लकड़ियों का चूल्हा जल रहा है।
उस लड़की के पेट में कुछ पकने का समय हो गया है।
उसके खारे स्तनों पर भिंचे उस अजन्मे के होंठ
बिचके तुम्हारे होंठ नहीं होंगे
जो अपनी खोटी मुस्कान का आँचल हिलाए
वे तड़प उठेंगे और तोड़ देंगे
हरी साड़ियों की खिलखिलाती डाल
अपने उजड़े-चिथड़े मौसम से।
सकुचो मत मैं पागल नहीं हो रहा
इधर दिमाग़ थोड़ा गरम हो गया है
जो तुम्हें देख हरा होते-होते सोचने लगता है
उस लड़की की आँखों में जलते हुए पेड़ की बात।
अब वह सड़क पर चल पड़ी है
जो डूबते दिन में काला अजगर हो रही है
जिसकी पूँछ तुम्हारी इस ख़ुशी से निकल रही है
कि वह जा रही है
और मैं तुम्हें प्यार कर सकता हूँ।
मगर मुझे डर है—
तुम्हारी साड़ी में कोई पतझर अपने को खोल रहा है
सिर्फ़ मेरे सोने की प्रतीक्षा में अपने अन्धेरे को
उकसाओ मत—इतिहास की किताब मेरी पीठ में गड़ रही है
दोपहर जो तुमने भूख से अधिक खिलाया था
वह पचेगा नहीं—मैं खुले मैदान जाऊँगा
रीढ़ का तनाव पीठ पर और तनेगा
इसलिए ऊबड़-खाबड़ कविता में
मितलाते दिमाग़ की सारी शंका मिटा आऊँ
जहाँ पर तुम पहले से ही पेचिश की चाँदनी में
ढलानों पर बही पड़ी हो
जिसे सूँघ मेरे शब्द उस अँधेरे जंगल में घुस जाएँगे
जहाँ लड़की की देह में
तुम्हारी साड़ी की सुरसुराहट साँप की तरह रेंग रही होगी
और बूढ़े टीले की ख़ाली कुर्सियों के ताक़ से
वह चूल्हे के वक़्त के लिए
कुछ टटोल रही होगी।
मैं तैयार नहीं हूँ तुम्हारी गुदगुदाती कहानी होने को
कि एक मैं था जिसे रूप की उस स्त्री ने मारा है
जो बीमार सपने जन्माती है
चाम पर चाँदनी की आग बिछाकर
उस लड़की से जलती है
जो जंगल से ज़िन्दगी ढोती है
ठण्डे चूल्हों के मुँह में आग बोती है।
मैं तैयार नहीं हूँ तुम्हारी बोयी हुई
बीमारी का विलास चरने को
मुझे कविता के वे स्वस्थ उभार बुला रहे हैं
जिनकी घाटियों में ऐसे तेजस्वी विचार गुर्राते हैं
जो माँस के हरे-भरे ख़ुदग़र्ज़ सुख को नहीं सोते
सच की सूखी हड्डियों में आग जगाते हैं!
कहाँ हैं—लकड़ी तोड़ती ऐंठी हुई उघड़ी रीढ़ की
प्रत्यंचा से छूटी वे बिजलियाँ
तुम्हारी साड़ी से ढँपी ढीली देह के दुराव में?
अपनी उँगलियों के पोरों में अकड़े शब्द फोड़ती हुई
कहाँ छिटकाती हो वह कविता
जो अँगड़ाई लेती वेदनाओं के फण पर
मणि की दीप्ति बिखराती हो?
मानबहादुर सिंह की कविता 'कविता के बहाने'