लघु-कथा छोटी कहानी का अति संक्षिप्त रूप है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से लघु-कथा और छोटी कहानी दोनों एक ही साहित्य-रूप का बोध कराती हैं। अंग्रेज़ी में कहानी को शॉर्ट स्टोरी और लघु-कथा को शॉर्ट-शॉर्ट स्टोरी कहा जाता है, जिससे दोनों के आकार-भेद का ज्ञान भले ही होता हो, लेकिन तात्विक भेद पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।
लघु-कथा और कहानी
कहानी में जीवन के किसी खण्डविशेष को प्रकाशित करने की चेष्टा की जाती है, जिसके लिए संक्षिप्त कथानक का निर्माण करना होता है, जिसमें घटनाएँ और चरित्र आदि होते हैं। लेकिन लघु-कथा के लिए यह सब आवश्यक नहीं है। उसका लक्ष्य जीवन के किसी मार्मिक सत्य का प्रकाशन होता है जो बहुधा इस ढंग से अभिव्यक्त होता है जैसे बिजली कौंधती है। लघु-कथाओं में घटनाएँ और चरित्र आदि कहानी की तरह सुनियोजित ढंग से हों ही, यह आवश्यक नहीं। वहाँ तो अत्यल्प साधनों द्वारा ही जीवन के चरम सत्य को उजागर करने की चेष्टा की जाती है।
लघु-कथाओं का प्रारम्भ कब से हुआ यदि इस पर विचार किया जाए तो मानना होगा कि इसकी जड़ आधुनिक कहानियों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। जिस प्रकार कहानियों का एक अत्याधुनिक रूप है, जो उसके प्राचीन रूप से नितान्त भिन्न है, और आधुनिक युग की उपज है, उस प्रकार लघु-कथाओं का कोई अत्याधुनिक रूप नहीं है, जिसके बारे में दावा किया जाए कि यह वर्तमान युग की देन है और प्राचीन साहित्य में उल्लिखित लघु-कथाओं से भिन्न है। इस बात को ध्यान में रखकर यह भी कहा जा सकता है कि जिस प्रकार छोटी कहानियों ने विकास का एक लम्बा पथ तय कर अपने को प्राचीन आख्यायिकाओं से एकदम भिन्न प्रमाणित किया है, वैसा लघु-कथाएँ नहीं कर सकीं। इसका कारण सम्भवतः यह है कि कहानियों में जीवन का यथार्थ जितनी सफलता से व्यक्त हो सकता है, उतनी सफलता से लघु-कथाओं में नहीं व्यंजित होता। एक तो इसका आकार छोटा होता है, जिसके कारण वर्णन और विश्लेषण की गुंजाइश कम होती है, दूसरे संकेतात्मकता और वेधकता पर यह कहानी की अपेक्षा अधिक ध्यान देती है।
लघु-कथाओं में बहुत कुछ राह सुझाने का भाव होता है, जबकि छोटी कहानियाँ पाठकों के सामने जीवन का एक संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत करती हैं।
चितेरे और अंगुलि-निर्देशक में जो अन्तर होता है वही अन्तर कहानियों और लघु-कथाओं में है। कहानी चित्रण के माध्यम से जीवन के किसी सत्य को संकेतित करती है, लेकिन इसके लिए वह एक विश्वसनीय वातावरण तैयार करती है, जबकि लघु-कथाएँ वातावरण निर्माण के लिए बहुत सचेष्ट नहीं होती।
इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि यदि कहानियाँ गाँव-घर से होकर गुज़रनेवाली गली हैं तो लघु-कथाएँ निर्जन-सुनसान से होकर गुज़रनेवाली पगडंडी हैं। दोनों का लक्ष्य एक है, लेकिन वातावरण की भिन्नता ही उनके रूप को अलग करती है।
कहानियों का जीवन के यथार्थ से कुछ ऐसा गठबन्धन हो गया है कि उनके बिना वे बहुधा विधवा-सी श्रीहीन मालूम होती हैं। वे अधिकतर ऐसी घटनाएँ और प्रसंग चुनती हैं जो हमारे लिए चिर-परिचित हैं या जिनका अस्तित्व भौतिक जीवन और जगत के बीच है; निरी काल्पनिकता की गुंजाइश वहाँ कम है। सूरज, चाँद, सितारे, कलियाँ, निर्झर, पेड़-पौधे, वन-पर्वत आदि को आधार बनाकर कहानियाँ प्रायः नहीं लिखी जातीं। वे या तो सामाजिक-राजनीतिक होती हैं या मनोवैज्ञानिक-ऐतिहासिक। लेकिन लघु-कथाओं के साथ कहानियों की-सी शर्ते अनिवार्य नहीं हैं। वे सूरज, चाँद, सितारों, कलियों, पेड़-पौधों और वन-पर्वतों को लेकर चल सकती हैं।
संक्षिप्तता कहानियों के लिए भी ज़रूरी है और लघु-कथाओं के लिए भी। लेकिन कहानियों की संक्षिप्तता का एक औचित्य होता है। आत्यंतिक संक्षिप्तता वहाँ अभीष्ट नहीं है क्योंकि उससे कहानी के आकार को उभरने में कठिनाई होती है। इस सम्बन्ध में वेल्स का ‘द कंट्री आफ़ द ब्लाइन्ड्स’ की भूमिका में कहानी के लिए पन्द्रह से लेकर पचास मिनट तक में पढ़े जाने की शर्त रखी गई है लेकिन लघु-कथाओं के लिए इतना समय ज़रूरत से अधिक है। वह तो दो-तीन मिनटों से लेकर पाँच-सात मिनटों में आसानी से पढ़ी जा सकती है।
लघु-कथा और बोध-कथा
लघु-कथाओं को हम प्राचीन बोध-कथाओं के बहुत समीप पाते हैं। प्राचीन बोध-कथाओं में जो संकेतात्मक उपदेशात्मकता होती है वह बहुधा आज की लघु-कथाओं में भी है। इस दृष्टि से वे या तो राह सुझानेवाली होती हैं या आँखें खोलनेवाली। आँखें खोलनेवाली लघु-कथाएँ राह सुझानेवाली लघु-कथाओं से निश्चय ही अच्छी मानी जाती हैं क्योंकि उनमें अधिक तटस्थता होती है। फिर भी दोनों में मात्रा का ही अन्तर है, प्रकार का नहीं।
लघु-कथाओं में अतिकल्पना
लघु-कथाओं में अतिकल्पना का खुलकर प्रयोग होता है। इस दृष्टि से पंचतंत्र का आदर्श उसके लिए अनुकरणीय है। यथार्थ जीवन में पेड़-पौधे, फूल-पत्तों, नदी, निर्झर जैसे भौतिक पदार्थ जड़ और अचेतन समझे जाते हैं। लेकिन लघु-कथाओं में ये सभी सजीव हो जाते हैं और पात्रत्व धारण करते हैं। उनके माध्यम से बहुधा ऐसे सत्य प्रकाशित होते हैं जो मोहन-सोहन या लीला-शीला जैसों के पात्र होने पर कठिनाई से व्यक्त होते।
लघु-कथाओं में दृष्टान्त
लघु-कथाओं के विकास में नैतिक और धार्मिक दृष्टान्तों का बहुत योग रहा है। ऐसे दृष्टान्त ही बहुधा लघु-कथाओं का रूप धारण कर लेते हैं। लेकिन यह बात सभी लघु-कथाओं के बारे में सही नहीं है। जिस प्रकार कहानियों के कई प्रकार निश्चित हो सकते हैं, उसी प्रकार लघु-कथाओं के भी कई वर्ग निर्धारित किए जा सकते हैं। सुविधा के लिए हम उनके दो वर्ग कर लेते हैं— (क) दृष्टान्तमूलक लघु-कथाएँ और (ख) अनुभव-मूलक लघु-कथाएँ।
दृष्टान्तमूलक लघु-कथाओं में किसी दृष्टान्त का आश्रय लेकर अभीष्ट सत्य का मार्मिक दृष्टान्त-कथन किया जाता है। इसके विपरीत अनुभव-मूलक लघु-कथाओं में कोई प्रत्यक्ष दृष्टान्त तो नहीं होता लेकिन अनुभव का आश्रय लेकर कोई सत्य विश्वसनीय ढंग से प्रकाशित होता है।
लघु-कथाओं से कभी-कभी ऐसी कहानियों का बोध ग्रहण किया जाता है जो होती तो हैं कहानियाँ ही, लेकिन आकार में छोटी होने के कारण आलोचकों द्वारा लघु-कथाएँ मान ली जाती हैं। यह सम्भवतः उस भ्रांत धारणा के कारण होता है जिसमें माना गया है कि छोटी कहानी और लघु-कथा में तात्विक अन्तर न होखर सिर्फ़ आकार-भेद है। प्रेमचन्द की कहानियाँ आकार में कितनी ही छोटी क्यों न हों, कहानियाँ ही हैं, लघु-कथाएँ नहीं। जिस प्रकार कवित्त और सवैये की तुलना में दोहा का अपना आकार और अन्दाज़ होता है, उसी प्रकार कहानियों की तुलना में लघु-कथाओं का अपना आकार और अन्दाज़ होता है। लघु-कथाओं की इस विशेषता को न समझ पाने के कारण ही अक्सर लघु-कथा और छोटी कहनी में भेद करना मुश्किल हो जाता है।