धुंध और कोहरे भरी जाड़े की दुपहरी में वह रजाई में दुबकी ऊन और सलाइयों के पेंचोखम में उलझी हुई थी। उसके मन में कई विचारों की रेल चल रही थी- वो शाम तक पति के आने से पहले घर के काम-काज निपटाते हुए बुनाई के लक्ष्य के कितने करीब पहुँच पायेगी? पास ही बेड के सिरहाने पर उसका छः-सात साल का बच्चा अपनी नन्ही हॉट-व्हील कारों में अपनी उँगलियों से गति भर रहा था। बच्चा उसकी ओर देखकर बोला- “अरे मैं बोर हो रहा हूँ, क्या तुम मेरे साथ खेलोगी?”
वह सोचने लगी की यदि खेलने लगी तो फिर मेरी बुनाई कैसे पूरी होगी? फिर बच्चे का मन रखने के बारे में सोच कर बोली- “अच्छा चलो खेलते है, क्या खेलोगे?”
“हम्म! चलो मालिश वाला खेल खेलते हैं।” माँ की सहमति से बच्चा जोश में आ गया। तदुपरांत दर्द का अभिनय करते हुए हाथ सर पर रख कर बोला, “आह मेरे बदन में बहुत दर्द हो रहा है, मालिश कर दीजिये प्लीज़।”
माँ अब मालिश करने वाली बन चुकी थी। वो अभिनय को आगे बढ़ाते हुए बोली, “आइये! लेट जाइए हम बहुत अच्छी सेवा प्रदान करते हैं।”
इस अभिनय के मध्य ही माँ सोचने लगी कि माघ मास की धुंध में बड़े कड़ाके की जाड़ पड़ रही है। माँ ने बेड की दराज में पड़ी अरोमा ऑयल की शीशी निकाल ली और बच्चे के हाथ-पैर-पीठ व पेट की तेल से मालिश कर दी और बोली, “सर! आपकी मालिश हो गयी, अब आप कैसा महसूस कर रहे हैं?”
ग्राहक बना बच्चा बोला- “अहा मज़ा आ गया, मेरा तो पूरा दर्द ही छू-मंतर हो गया, बताइये कितने पैसे हुए?”
माँ ने समय की धारा के मुताबिक ही मालिश का मूल्य बताया, “सौ रुपये दीजिए।”
बच्चे ने खाली हाथ को माँ के हाथ के ऊपर फिराते हुए पैसे देने का अभिनय किया और बोला, “जा रहा हूँ, बोलो शुक्रिया, फिर आइएगा।”
माँ की आदत में दुकानदारी के ये सूत्र-वाक्य संभवतः नहीं थे अतः बच्चे से ही सीख लेकर उसने वाक्य दुहरा दिया, “शुक्रिया, फिर आइयेगा।”
इसके बाद बच्चे ने भूमिका की अदला-बदली कर दी और कहा, “अब मैं मालिश वाला बनता हूँ।”
माँ तैयार हो गई।
बच्चे ने अपने झिंने-झिंने (नन्हे-नन्हे) हाथों से माँ की पीठ और कंधों पर हौले-हौले कई मुक्के लगाये। माँ को ऐसा लगा जैसे सारे बाकी बचे कार्यों के समाप्त हो जाने की संतुष्टि उसे मिल गयी हो। बच्चे ने पांच मिनट में अपना कार्य समाप्त कर लिया और बोला, “हो गया, पैसे दे दीजिए।” उसने अपने छोटे से हाथ को आगे बढ़ा दिया।
माँ ने पूछा, “कितने पैसे हुए?”
बच्चे ने कहा, “बीस रुपये।”
उसके रुपयों की सीमा या तो दस-बीस रूपये होती या फिर लाख-करोड़, बीच के अंकों से वह अनभिज्ञ था। माँ ने पैसे देने का अभिनय किया, और इसके तुरंत बाद ही बच्चे की निगाह पुनः अपनी नन्ही खिलौना-कारों की तरफ चली गयी।
उसने माँ से पूछा, “ये ग्रीन कार खरीदोगी?”
माँ को फिर से अपने घरेलू काम-काज की याद आ गई लेकिन फिर भी उसने बेमन से कहा, “ठीक है सौ रुपये में दे दो।” और उसकी हरी कार माँ ने खरीद ली।
बच्चे ने दुबारा एक जामुनी कार उठायी और कहा, “ये कार आप मुझे कितने में देंगी?” (उसने बिन बोले दुकानदार की भूमिका बदल दी।) माँ ने कार के सही मूल्य को बताना उचित समझते हुए कहा, “जी, कार की कीमत सौ रुपये है, एक रुपये के डिस्काउंट के बाद ये आपको निंयानबे रुपये में मिलेगी।”
बच्चा बोला, “लेकिन मैं इसके लिए आप को कई सौ रुपये देना चाहता हूँ।” तो माँ हँसते हुए बोली, “दे दीजिए धनपति जी! हम कार का मूल्य अपने पास रखकर बाकि पैसे ज़रूरतमंदों को दान कर देंगे, ठीक?”
“हाँ ठीक है।” बच्चे ने माँ की बात की महिमा जाने बगैर हामी भरी।
अब माँ इस ख़रीद-फरोख्त के खेल से ऊबने लगी थी। बच्चे को कार छाँटते देखते हुए उसके मुँह से अचानक ही गीत ‘चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला’ की तर्ज पर एक-दो निरर्थक शब्द गीत का भेष धर कर फूट पड़े, “लकिया-पकिया, लकिया-पकिया।”
बच्चा जोर से उसकी ओर देख कर हँसने लगा, “क्या गा रही हो, मम्मी?” माँ को उन निरर्थक शब्दों का बोध हुआ और वह झेंप गई, पर बच्चे ने कहा, “फिर से गाओ तो।”
माँ ने फिर से गाया, “लकिया-पकिया, लकिया-पकिया।” और दोनों ठठा कर हँस पड़े। अबकी बच्चा स्वयं माँ का अनुसरण करता हुआ गा उठा, “लकिया-पकिया, लकिया-पकिया।”
फिर दोनों ठहाके लगाते हुए रजाई में एक साथ गड्डम-गड्ड होने लगे और उनकी हँसी की ध्वनि कुहरे में गर्माहट भर रही थी।