मेरे गाँव में सफ़ेद संगमरमर से बनी दीवारें
लोहे के भालों की तरह उगी हुई हैं
जिनकी नुकीली नोकों में नीला ज़हर रंगा हुआ है
खेजड़ी के ईंट-चूने के थान से भी ऊँचे ये गुम्बद
दोनों वक़्त राग अलापते हैं
जाने किसको आसमान से ज़मीन पर उतारने की होड़ लगाते हैं
हम टूटी-टायर चप्पलों से दौड़कर पंक्ति में सबसे पीछे
जाकर खड़े हो जाते हैं
स्कूल में जन-गण-मन की सावधान मुद्रा की मानिंद
हम भी बिना हिले-डुले
गाते हैं प्रार्थनाओं में
हमको तन की शक्ति देना मन विजय करे…
हमारी पगथलियों में भुखमरी के काँटे गड़े हुए हैं
हम अपनी नंगी एड़ियों से
इन बाड़ की शूलों को ज़मीन में गाड़ने की कोशिश करते हैं
मगर ये फिर उग आते हैं थूहर की तरह
इस बार भोथरे क़र्ज़ बनकर हमारी पीठ पर
हमारी पीठ पर इनका वज़न
जेसीबी से भी भारी हो जाता है
लहू-लुहान पीठ रिस-रिसकर ग़रीबी रेखा को लाल कर देती है
हम लाल रंग में रंगी ग़रीबी-रेखा के फीते काटकर
अपनी चोटियों में गूँथ लेते हैं
और फिर से प्राथनाओं में लीन हो जाते हैं
इस बार गाते नहीं
चिल्लाते हैं…
प्रतिभा शर्मा की कविता 'प्रेम का अबेकस'