‘Lautna Hoga’, a poem by Nirmal Gupt
एक दिन
हमें लौटना होगा
जैसे आकाश छूती लहरों के बीच से
लौट आते हैं मछुआरे अपनी जर्जर नाव
और पकड़ी हुई मछलियों के साथ
हमें लौटना होगा
जैसे लौट आते हैं योद्धा लहूलुहान
यह बता पाने में असमर्थ
कि वहाँ कौन जीता, किसकी हार हुई
हमें लौटना होगा
जैसे बहेलिये लौट आते हैं
अरण्यों से रीते हाथ
यह बताने में लजाते हुए
कि अब वहाँ अदृश्य परिंदे रहते हैं
जो निकल जाते हैं जाल के आरपार
हमें लौटना होगा
जैसे दिन भर चमकने वाला सूरज
चला जाता है अस्ताचल में
अँधेरे को बिना बताये
निशब्द
हमें लौटना होगा
जैसे एक थकी हुई लड़की
दिन भर यहाँ-वहाँ भटकने के बाद
कोई निरर्थक गीत गुनगुनाती
चली आती है वीराने घर में
हमें लौटना होगा
अपने-अपने प्रस्थान बिंदुओं की ओर
यह सोचते हुए
आगामी यात्रा सुखद होगी
हमें लौटना होगा
ठीक वैसे ही जैसे हमारे पुरखे
लौटा करते थे शमशान से
किसी आत्मीयजन को जलाकर
हमें लौटना होगा
एक दिन
ख़ुद को इतिहास समझने की
ग़लतफ़हमी के साथ
जबकि होगा यह
हम फिर कभी नहीं लौटेंगे!
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