ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के।
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के।

कह रही है झोंपड़ी औ’ पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के।

बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं, ये जानकर
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

कफ़न बाँधे हैं सिरों पर, हाथ में तलवार है
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के।

हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से
बेड़ियाँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के।

एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में।

देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के।

'यार सुना है लाठी-चारज, हल्का-हल्का होता है'

Book by Balli Singh Cheema:

बल्ली सिंह चीमा
(जन्म: 2 सितम्बर 1952) सुपरिचित जनवादी कवि