बीता वर्ष अवसान हेतु उद्यत है
वर्ष नहीं जानते हैं
पूरी तरह वापस लौटने की कला
लेकिन मुझे तो लौट जाना था…
हृदय के उस अति संकरे मार्ग पर
जहाँ प्रार्थनाओं के अंतिम मन्दम स्वर में डूबा जा सकता था।
मुझे उस विश्रान्ति की सूक्ष्मता भी थामनी थी
जो संगीत सभागार की अनुगूँज के बाद
दर्शक व श्रोता के बीच भेद बता रहा था
मुझे नदी की प्यास के निशान खोजने थे
जिसके बारे में मुझे यक़ीन था कि
उसने बहने से पहले रेत में कहीं गहरे दबा दिया था
मुझे गोधूलि में खूँटी के पास खड़े पशुओं से पूछना था
कि वे खुले मैदानों से लौटकर
हर बार बंधने के लिए क्यों आ जाते हैं
मुझे पहाड़ से ‘संन्यास’ का भावार्थ समझना था
जो कंकड़ में बदलते हुए भी
अंतिम साँस तक द्वंद्व में रहकर भी निर्द्वंद्व रह पाता है
मुझे उस भूमिहीन मज़दूर से मुस्कान उधार लेनी थी
जो बिन मौसम बरसात होने पर
किसी खेत में लावारिस बीज दबे होने की प्रार्थना करता है
मुझे तितली के साथ कोकून की उम्र जी लेनी थी
जो अल्पजीवी होने के बावजूद
संसार के हर उपवन तक शीघ्रातिशीघ्र पहुँचना चाहती है
लेकिन
वर्ष नहीं जानते हैं… वापस लौटना!
वे जानते हैं…
अवसान पर कुछ छूट जाने की कसक छोड़ जाना,
वे देवताओं से माँग लाते हैं
नववर्ष की हर अलसुबह कुछ पा लेने की सम्भावनाएँ;
सम्भावना हेतु कुछ प्रतिक्षाएँ भी
और…
प्रतिक्षाएँ तो सृष्टि की सबसे ख़ूबसूरत जीवट आशाएँ हैं!
मंजुला बिष्ट की कविता 'स्त्री की दुनिया'