लिखने की कला मानव इतिहास में एक धूमकेतु की तरह उपजी थी। मनुष्यता की यात्रा में, ध्वनियों और आवाज़ों का लिखा जाना, एक अप्रतिम पड़ाव रहा है। अगर हम हमारे इतिहास से लेखन पक्ष हटा दें तो हमारे कई जैविक, सामाजिक, राजनैतिक एवं वैज्ञानिक विकास असम्भव दिखायी पड़ते हैं। कई हज़ारों सालों की लेखन परम्परा की वैतरणी हमेशा आज से होकर बहती है। एक व्यापक स्तर पर लेखन की दिशा (हालाँकि कला की दिशा कला की परिधि ही होती है) उस समय पर लिखे जा रहे शब्दों से निर्धारित होती है।
पिछले कुछ समय से मुझे व्यक्तिगत स्तर पर लिखने में झिझक महसूस होने लगी है। इस शिथिल छटपटाहट का स्रोत बाहरी ना होकर, कहीं बहुत अंदर ही है। स्रोत के कारक बाहरी हो सकते हैं। मैं जब भी लिखने बैठता हूँ, अपने आपको सबसे अकेला महसूस करता हूँ। मैं यहाँ उस एकांत की बात नहीं कर रहा हूँ जिसको लेखक का सार्वभौमिक सत्य बताया जाता रहा है। इस अकेलेपन में भीषणता है। क्रोध है। संताप है।कुछ भी लिखने से पहले मेरे सामने, मेरे पूर्वाग्रह और अनुभव, यक्ष प्रश्न की तरह खड़े हो जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढते वक़्त मैं ख़ुद को ऐसी जगह पाता हूँ, जहाँ वास्तविक और आभासी तत्व एक हो जाते हैं। इस सन्निपात स्थिति में जिस भी उधेड़बुन से मैं गुज़रता हूँ, आगे लिख के ख़ुद समझना चाहता हूँ।
मैं समझता हूँ कि “क्या लिखना है?” से पहले “क्यों लिखना है?” पूछा जाना चाहिए। उससे भी ज़रूरी सवाल है, “लेखन क्या है?”। जब हम अपनी अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते हैं, तब सिर्फ़ सम्प्रेषण मुख्य लक्ष्य नहीं रहता है। हम लिखते समय, समय के टुकड़ों की आयु बढ़ाने का काम भी करते हैं। लिखे हुए की यात्रा हमेशा, लिखे जाते समय की परिस्थिति, से ज़्यादा दीर्घायु होती है। अगर कुछ लिखा हुआ सिर्फ़ तात्कालिक परिस्थितियों से जन्मा है और एक तात्कालिक प्रभाव की चेष्टा से पोसा गया है, तो वह लेखक को संतुष्टि नहीं देगा (ऐसा मेरा निजी विचार है)। किसी कृति की रचना प्रक्रिया एवं उसकी नियति, कुल मिलाकर, एक सम्वाद ही है। किसी भी लिखने वाले के लिए सम्वाद को समझना और बेहतर करना, एक ज़रूरी और निरंतर प्रक्रिया है। बिना सम्वाद के लिखा गया साहित्य, तकनीकी रूप से कितना ही समृद्ध हो; वो बहुत दिनों तक ख़ुद को जीवित नहीं रख सकता है। जिस सम्वाद की मैं बात कर रहा हूँ, ये जीवन के अनुभव और उनमें छुपे संकेतों को पढ़ने की आस्था के परस्पर द्वंद्व से जन्मता है। यहाँ आस्था, अंधविश्वास ना होकर, अधकच्ची है। ये प्राकृतिक होकर भी सुलभ नहीं है।
निर्मल वर्मा जी लिखते हैं—
“केवल एक आत्मसंशयी आस्था, संदेह में अधडूबी आस्था कुछ हद तक किसी लेखक को अपने अनुभवों का अर्थ मापने में समर्थ बना सकती है।”
यानि लेखन की नित्य क्रिया में ख़ुद से लगातार सवाल पूछना और उनके जवाब, बाहरी और आंतरिक दुनिया में ढूँढना, अवश्यम्भावी हैं। जब लेखक इस स्वःसम्वाद से जूझता है तो ना ही सिर्फ़ उसका दर्शन सुदृढ़ होता है, उसकी भाषा अलंकृत एवं शिल्प आलोकित होता है। एक रचना का बाहरी दुनिया से सम्वाद कैसा और कितना होगा, ये काफ़ी हद तक उसकी सृजन प्रक्रिया पर आश्रित होता है।
जब हम लेखन को इस परिभाषा में देखते हैं, “लिखना क्यों है?” का उत्तर हमारे बहुत क़रीब होता है। लिखने की क्रिया बाहर और अंदर को एक करने की प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही, जैसे दो सागरों को एक नाज़ुक-सी पानी की नहर जोड़ती है। जैसे सभी क्षितिजों को आसमान जोड़ता है। जैसे दो सभ्यताओं को पहाड़ी दर्रे जोड़ते हैं। रशियन फ़िल्ममेकर आंद्रे तारक्वॉस्की का कहना है—
“कवि वह है जो एक अकेले दृश्य से वैश्विक संदेश देता है।”
इस कथन के प्रकाश में लिखे गए और लिखने वाले की नियति साफ़ हो जाती है। लिखना इसीलिए ज़रूरी है जिससे मनुष्य अपने व्यक्तिगत अनुभवों को प्राचीन अनुभूतियों से जोड़ सके और ख़ुद को इस विराट, अंतहीन जीवन में अकेला महसूस ना करे। अपितु ख़ुद को बाक़ी इंसानों, समाजों, देशों, भाषाओं और प्रकृति से ज़्यादा जुड़ाव महसूस करे।
मगर क्या लेखन क्रिया इतनी जड़ हो सकती है? आज का युवा लिखने के लिए सबसे आवश्यक जिस वस्तु को मानता है, वह है: प्रेरणा। प्रेरणा को जिस तरह से रोमान्टिसाइज़ किया गया है, हमने लिखने से ठीक पहले के क्षण को एक दैवीय शक्ति माना है। यह ठीक भी है। परंतु ऐसा सोचना कि बैठे हुए किसी भी समय आपका सामना एक चमत्कारिक प्रेरणा से होगा, निरर्थक है। किसी भी क्षण आपको मिली प्रेरणा कहीं बाहर से नहीं आती है, वो आप ही का हिस्सा है। बाहर हो रही घटनाएँ आपके लिए एक ऐसा दर्पण हैं, जो आपको आपके अनुसार ही प्रतिबिम्ब दिखाएगा। ‘फ़ाउंटेनहैड’ जैसी कालजयी किताब की लेखिका आयन रैंड ने लिखा है—
“जिसे हम सब सामूहिक और अस्पष्ट तौर पर ‘प्रेरणा’ कहते हैं, वह और कुछ नहीं; हमारे भीतर पनपती नीयत और नज़र का कुल जोड़ है।”
यानि हम जिस स्तर की प्रेरणा के पात्र बनना चाहते हैं, हमें उसी स्तर की साधना करनी होगी। आख़िर में, एक ऐसी कला के विद्यार्थी होने के नाते, जिसकी शुरुआत ही संयम और धैर्य की संतति है; हमें तात्कालिक लेखन से बचना चाहिए।
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जहाँ अभिव्यक्ति एक दौड़ साबित हो रही है। आपा-धापी में दिए जा रहे बयान और लिखी जा रही चीज़ों से हवा का दम घुट रहा है। हम लगातार लिखते और बोलते जा रहे हैं। आज जब हम सामाजिक और राजनैतिक वक्तव्यों के गिरते स्तर की समस्या से चिंतित हैं, हम भूल रहे हैं कि उसकी जड़ में हम भी हैं। हमारी पीढ़ी शब्दों की शक्ति से निरंतर अपरिचित होती जा रही है। सृजन में से धैर्य के हटने से जो कृतियाँ जन्म ले रहीं हैं, उनकी आयु छोटी होती जा रही है। हम अभी तक काव्य से साराबोर थे, अब कविताओं-कहानियों से घिरे हुए हैं। ऐसे में लेखकों को अपने बहुत भीतर उतरकर ख़ुद से रोज़ पूछना चाहिए कि कितना लिखना ज़रूरी लिखना है।
सवाल यहाँ लिखे गए की मात्रा से ज़्यादा लिखने में की गई यात्रा का है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार, किसी भी भाषा की सेवा उस भाषा को बोलने वालों के उद्धार से ही की जा सकती है। यहाँ भाषा साधन है, उसको उपयोग में लाने वाले साध्य हैं। इस विचार को जब आप आगे बढ़ाएँगे, तो अपनी सेवा का लक्ष्य जान पाएँगे। सेवा सामग्री उसके बाद अपने आप जुटा लेंगे। लिखना कोई ऐसा विज्ञान नहीं है जिसके नियम जड़ हों। लिखना वल्लभाचार्य जी के शुद्धाद्वैत सिद्धांत की तरह है, जहाँ भगवान की सेवा करते हुए आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। आप इसे एक समुद्र मंथन की तरह भी देख सकते हैं, जिसमें से आपको अमृत की बूँदें ही समाज को देनी हैं। हमें अपने आसपास की चीज़ों से प्रभावित होकर लिखने से पहले विचारशील होना पड़ेगा। किताबें पढ़नी होंगी, इतिहास में जाना होगा, भूगोल समझना होगा, प्रकृति को जानना होगा, संगीत से परिचित होना होगा, ख़ुद से मिलना होगा। इन मोती जैसे अनुभवों को जिस धागे से हम पिरोएँगे, वो हमारी अपनी कल्पना होगी। हमें लिखने से पहले कई बार रुकना होगा, जिससे शब्द अपना स्थान ढूँढ सकें। सुंदरता स्थापित हो सके।
मैं यहाँ गीत चतुर्वेदी जी की एक समझाइश के साथ इस लेख को अंत करता हूँ कि एक कवि अपना इर्द गिर्द स्वयं चुनता है। वो अपना इर्द गिर्द सामान्य व्यक्ति से ज़्यादा फैला सकता है। वह वर्तमान में ही नहीं, उसके आगे पीछे को भी अपना इर्द गिर्द मानता है।”