आँतों को पता है
अपने भूखे छोड़े जाने की समय सीमा
उसके बाद वे निचुड़तीं
पेट कोंच-कोंचकर ख़ुद को चबाने लगती हैं
आँखों को पता है
कितनी दुनिया देखने लायक़ है
उसके बाद बुढ़ापे का मोतियाबिंद चढ़ाकर
झूलती लटकती रहती हैं
उजाड़ों के धुँधलके पर गड़ी हुईं
नाकों को पता है
कटने झुकने ऊँचाई बनाए रखने की
अवसरवादिता और
अच्छा-बुरा सब सूँघ जाने की
लज्जाहीन परिभाषा
उसके बाद घास और माछ के बीच
किसी महकते तोरण पर अपना घ्राण ख़र्चती हैं
चमड़ी को पता है
नीचे गुज़रती नसों की आवारा दौड़
ऊपर चढ़ती यौवन की अनिवार्यता
उसके बाद ले पटकती हैं
लटके हुए बुढ़ापे के गलन पर
हाथों को पता है
लोहे और कपास के बीच का फ़र्क़
लोहा पकड़कर लोहा बनने
और कपास छूकर कपास हो जाने की
अनुवांशिक अक़्लमंदी से भरे हाथ
रगड़ खाते हुए भी बचे रहते हैं
दुनिया बदलने की तोता-चश्मी में
उसके बाद अपना बदन मलते हुए भी काँपते हैं
उम्र का लोहा कपास होते जाने पर
सारे अंगों को पता हैं
उनके निर्वाण की जगहें और वजहें
इन्हें नहीं जाना पड़ता
किसी अधजगी रात में एक-दूसरे से दूर
एक लम्बी लेकिन बहुत धीमी
क्षीण होते चले जाने की प्रक्रिया
जिसमें शरीर के
ये सारे हिस्से अपनी-अपनी
आत्महत्या की कोशिशों में लगे हुए हैं
ऐसे में यह कहना भी उचित नहीं कि
बेज़रूरत के मौसमी मोह में
अपनी इस ग़रीब देह को
थाती मान लिया जाए
जब यह स्वयं एक अंतर्युद्ध में मग्न है।
आदर्श भूषण की कविता 'ग़ायब लोग'