भारतीय सिनेमा में प्रेम हमेशा से एक हीरो रहा है और वासना एक विलन। कोई हीरो वासना के वशीभूत होकर कोई काम करता नहीं दिखाया जाएगा। शारीरिक संबंधों की तरफ आकर्षण एक विलन की ही प्रवृत्ति हो सकती है। और यह विलन भी एक-आध अपवाद को छोड़ दें, तो केवल पुरुष ही होगा। ऐसे में ‘वासना’, जो कि ‘लस्ट’ का शाब्दिक अनुवाद (लिटरल ट्रांसलेशन) है, को मध्य में रखकर कहानियाँ बुनना और औरत के नज़रिये से उन्हें कहना भारतीय सिनेमा के लिए बहुत नयी और काबिल-ए-तारीफ चीज़ है। ‘लस्ट स्टोरीज’ देखने का पहला कारण तो इसके इसी विषय में ही मिल जाता है।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ की गयी ‘लस्ट स्टोरीज़’ चार स्वतंत्र कहानियों की श्रंखला है जो ‘लस्ट’ को उसके अलग-अलग पहलुओं में परखने की कोशिश करती है। कोई कहानी इसका सामान्यीकरण करती दिखती है तो किसी कहानी में इसके विस्फोटक हो जाने की संभावनाएं तलाशी जाती हैं।
‘होलसेल में प्यार’
कहानी दर कहानी देखें तो पहली कहानी निकलती है अनुराग कश्यप के निर्देशन से। इसकी हीरोइन है कालिंदी (राधिका आप्टे), जो कि अपनी ‘लॉन्ग-डिस्टेंस’ शादी से खुश होते हुए भी संबंधों को उनके कच्चे-पक्के रूप में टटोलना चाहती है। वो कहती है कि वो टुकड़ों में प्यार नहीं कर सकती, उसे होलसेल में प्यार करना है। उसे जिस इंसान की जिस खूबी से लगाव होता है, वह उस लगाव को केवल इसलिए नहीं झुठला सकती कि उसने किसी और को चुन लिया है। इस कड़ी में वो अपने एक विद्यार्थी और अपने एक सहकर्मी के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है और खुद को एक ऐसे भंवर में घिरा पाती है जहाँ उसे बार-बार खुद से एक डायलॉग करना पड़ता है जो उसकी करनी को जस्टिफाई कर सके।
ये मोनोलॉग कैमरा से संवाद के रूप में दर्शाये गए हैं और राधिका के सजीव अभिनय ने इन्हें इस कहानी की यूएसपी बना दिया है। ये मोनोलॉग सुनते हुए आप कई बार अपना पाला बदलेंगे। कभी कालिंदी पर झल्लाएंगे, कभी उसके विरोधाभासों पर हँसेंगे तो कभी उसकी बातों के तल में जाने का प्रयास करेंगे। इस कहानी में किसी निष्कर्ष पर ना पहुँचते हुए भी आप लस्ट को उसके मूल रूप में देख पाएंगे, बेहद उम्दा अभिनय के साथ।
‘बहरूपिया लस्ट’
ज़ोया अख्तर द्वारा निर्देशित दूसरी कहानी के मध्य में है सुधा (भूमि पेडनेकर) जो कि अजीत (नील भूपलम) के घर पर काम करती है। मालिक और नौकर का यह सम्बन्ध बिस्तर तक पहुँचता है मगर यह करीबी दोनों के बीच की सामजिक-आर्थिक दूरी को नहीं पाट पाती। स्क्रीनप्ले की बारीकियों के लिहाज़ से जहाँ यह सबसे मज़बूत कहानी है, वहीं यहाँ हवस और प्यार के बीच की रेखाएं एक दूसरे में मिलती सी नज़र आती हैं। यह लस्ट स्टोरी एक दुखद लव स्टोरी का रूप लेती दिखाई देती है।
इसे दो रूपों में देखा जा सकता है- पहला यह कि ये कहानी की कमज़ोरी है कि लस्ट की थीम से भटकाव पैदा हुआ। और दूसरा यह कि कहानीकार का उद्देश्य यहाँ लस्ट का वह रूप दिखाना है जहाँ लस्ट, लस्ट रह ही नहीं पाती। जहां शारीरिक संबंधों की बुनियाद पर चलने वाले कैज़ुअल रिश्तों की बुनियाद कब हिल जाती है पता भी नहीं लगता। खासकर एक स्त्री किन्हीं दो तरह के संबंधों को कैसे दो अलग-अलग खांचों में नहीं रख पाती, इस कहानी के मौन में ये बातें नेपथ्य से सुनाई पड़ती हैं।
‘ये लाइफ नहीं, अलाउंस है’
तीसरी कहानी दिबाकर बनर्जी द्वारा निर्देशित है और इसके मुख्य किरदार में है रीना (मनीषा कोइराला) जो सलमान (संजय कपूर) से अपनी नीरस शादी के बाहर एक उन्मुक्त और रोमांचक जीवन की सम्भावना तलाशती है सलमान के ही दोस्त सुधीर (जयदीप अहलावत) में। सलमान पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित एक अहंकारी मर्द है जो इस रिश्ते को अपने बच्चों और अपने बिज़नेस की खातिर निभाए रहना चाहता है। वहीं सुधीर रीना से सम्बन्ध और सलमान से दोस्ती के ठीक मध्य में जूझ रहा है। तीनों कलाकार अपनी उपस्तिथि मात्र से अपनी प्रवृत्ति, अपने द्वंद्व इतनी कुशलता से दिखा जाते हैं जो कोई भारी भरकम डायलॉग नहीं कर पाते। यहाँ लस्ट की जड़ में वे परिस्थितियां हैं जो कमोबेश हर दूसरी भारतीय महिला झेलती है, मगर कभी सामाजिक मर्यादा के संकीर्ण दायरों से बाहर आने की सोचती भी नहीं।
रीना के पास आर्थिक प्रिविलेज है। वह एक सशक्त महिला है। वह हीरो भी है और विलन भी। वह आखिरी सीन में एक बहुत आज़ाद हंसी हंसती है जिसके आप कई मायने निकाल सकते हैं, कई दृष्टिकोणों से रीना के व्यक्तित्व को परख सकते हैं।
‘लोलिता’
चौथी और आखिरी कहानी कहते हैं करण जौहर। एक बेहद मनोरंजक कहानी जिसमें करण ने अपनी फितरत से थोड़ा खिसकते हुए एक व्यक्ति विशेष को परिवार व रिश्तों से ऊपर रखा है। इंडिविजुअल, वो भी एक औरत, को सामाजिक ढर्रों से अलग या ऊपर देख पाना हमारे लिए नयी बात है और इसे स्वीकार कर पाने में अभी हमें बहुत समय लगेगा। मेघा (किआरा आडवाणी) को अपने जीवन में प्रेम, सम्बन्ध, सेक्शुअलिटी को कभी जानने-समझने का मौका नहीं मिला। अपने आसपास एक निर्भीक, स्वच्छंद सहकर्मी रेखा (नेहा धूपिया) को अपने शरीर के साथ सहज देखना मेघा के लिए नया अनुभव है। प्रेम और हवस दोनों के द्वार मेघा के लिए विवाह ही खोलता है। विवाह ही उसे बताता है कि अपने पति पारस (विक्की कौशल) से प्रेम करते हुए भी, उसकी शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करते हुए भी वो एक खालीपन महसूस कर सकती है। वो खालीपन जिसका एहसास किसी को भी तब तक नहीं होगा, जब तक वह खुद को रिश्तों के नाम पर बोझ बनकर आने वाले कर्तव्यों से बाहर निकालकर न देखे। यह खालीपन मेघा की ज़िन्दगी में एक्टिव लेकिन असंतुष्ट सेक्स-लाइफ के रूप में आता है।
बहुत ही रोचक और साथ ही स्वाभाविक तरीके से दिखाया जाता है कि कैसे एक मर्द के लिए ये सोचना भी मुश्किल है कि उसकी बीवी भी संबंधों से एक ख़ास तरह की उम्मीद रख सकती है। चूंकि करण जौहर द्वारा निर्देशित कहानी है तो लस्ट भी प्रेम और थोड़ी नाटकीयता के साथ ही दर्शाया गया है। मगर कहानी का विषय, उसका चित्रण और कलाकारों का उम्दा अभिनय इससे तुरंत ही ध्यान हटा देता है।
लस्ट जैसे निषिद्ध विषय पर होते हुए भी यह सीरीज़ सिनेमा के चालू मसालों और फूहड़ता से बहुत दूर है। हर एक दृश्य की अपनी प्रासंगिकता है। हर प्रसंग कई परतों में खुलता है। आप इन परतों को खोलते भी रह सकते हैं, या अपनी समझानुसार अपने हिस्से की बात ले कर आगे भी बढ़ सकते हैं। यह अच्छा, मॉडर्न सिनेमा है जो एक बड़े वर्ग द्वारा पसंद ना भी किया जाए तो विमर्श करने लायक तो है ही।