बच्चों पे चली गोली
माँ देख के ये बोली—
ये दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोएँ मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझसे नहीं होगा
मैं दूर खड़ी देखूँ
और अहल-ए-सितम खेलें
ख़ूँ से मेरे बच्चों के
दिन रात यहाँ होली
बच्चों पे चली गोली
माँ देख के ये बोली
ये दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोएँ मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझसे नहीं होगा
मैदाँ में निकल आयी
इक बर्क़-सी लहरायी
हर दस्त-ए-सितम काँपा
बंदूक़ भी थर्रायी
हर सम्त सदा गूँजी
मैं आती हूँ, मैं आयी
मैं आती हूँ, मैं आयी
हर ज़ुल्म हुआ बातिल
और सहम गए क़ातिल
जब उसने ज़बाँ खोली
बच्चों पे चली गोली
उसने कहा ख़ूँ-ख्वारो!
दौलत के परस्तारो
धरती है ये हम सबकी
इस धरती को नादानो
अंग्रेज़ के दरबानो
साहिब की अता-कर्दा
जागीर न तुम जानो
इस ज़ुल्म से बाज़ आओ
बैरक में चले जाओ
क्यूँ चंद लुटेरों की
फिरते हो लिए टोली
बच्चों पे चली गोली!
हबीब जालिब की नज़्म 'मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता'