अनुवाद : निशिकांत ठकार
दुःख इस बात का नहीं है कि माँ चल बसी
हर किसी की माँ कभी न कभी मर जाती है
दुःख इस बात का है : अज्ञान के घोष के भीतर
उसने ज़िन्दगी के समझौते किए
गाँव छोड़ा, तब वह वहीं पर छोड़ आयी मरी माई का पिटारा
विस्थापित होकर बाप पहले ही
आ धमका था शहर में
माँ शहर आ गयी बदन की बुहारी लेकर
कष्ट उठाए, मुसीबतें झेलीं
बासी रोटी के टुकड़े तोड़कर
फिर भी उसकी अद्भुत की खोज जारी रही
उसके बदन भीतर के बाजे ऐसे ही झनझन बजते रहे
बाप यूँ तो खटीकखाने का कसाई ही था
हर रात जानवरों के छीले हुए कलेवरों को ढोता रहता
लहू से लथपथ हो जाया करता
बेहद देखा-भोगा माँ ने भी
शहर में भी उसने भगौने में रसोई पकायी
पैठणी के रंगों को निरखते-निरखते
फटी-पुरानी धोती को थिगली लगायी
बाप से पहले मरकर
वह इस तरह सुहागन का सम्मान पा गयी
बाप अब भी रेंगता-घसीटता
मौत की राह देख रहा है
माँ से पहले बाप मर गया होता तो
मेरे लिए वह कोई सोचने वाली बात नहीं होती
दुःख इस बात का है : वह भी माँ के इक़रार में शामिल था
दोनों ने दरिद्रता के पाँव ढाँक लिए
लक्ष्मीपूजन को दरिद्रता की पूजा की
हर दिवाली मेरे लिए ऐसी ही आती गयी
एक-एक दिअली को बुझाती चली गयी
अपनी छोटी-सी दुनिया का खुलासा
कभी नहीं हुआ माँ को
आकाश की ओर हाथ उठाकर वह कहा करती
उसके इशारे के बिना मामूली पेड़ का पत्ता भी नहीं हिल सकता
माँ के पोते को धरती के आकार की जानकारी तो हो गयी है
बिजली क्यों चमकती है, बारिश क्यों होती है
वह दादी को बताने की कोशिश करता
तो वह कहती, ‘अरे मेरे पगले’ और धौल जमा देती पीठ पर
फिर कहती ‘अरे बाबा
दुनिया चलाने वाले का इस तरह मज़ाक नहीं उड़ाया करते’
उसे लगता कि यह दुनिया अनाड़ियों की पाठशाला है
कहा करती, ‘यह धरती
उसकी बिछाई हुई लम्बी-सी चादर है
न उसका आदि है, न अन्त है
धूप-छाँव सब उसकी इच्छा का खेल है’ कहा करती
दुःख इस बात का नहीं है कि माँ चल बसी
हर किसी की माँ कभी न कभी इस तरह मर जाती है
अनाकलनीय!