माँ आज से बिंदी नहीं लगायेंगी,
पापा के जाने के बाद से
कोई और शृंगार भी न करें अब शायद।

मैंने जाना था,
घर के दक्खिन से उगते सूरज को
अब मैं घंटों घूर सकता हूँ अपलक,
लेकिन माँ के माथे को
निमिष भर नहीं निहार सकता।
सूर्य पर छाए
किसी ग्रहण से भी खतरनाक है
माँ के अस्तित्व पर छाए
इस ग्रहण को देखना।

और मैंने यह भी जाना कि
माँ की गोद में आकर चुप हो जाने वाली
दीदी की रोती हुई बिटिया ने
अपनी नानी को अनचिह्न कर दिया आज।

तो क्या एक बिंदी ने
माँ से उनकी पहचान छीन ली?!

नहीं, माँ बस अब किसी की पत्नी नहीं रहीं।
किसी की बहू-बेटी-बहन और माँ, आज भी हैं।

माँ ने अपने वजूद की रक्षा करना
बहुत पहले सीख लिया था जब
नई आई उस बिहाता ने
अपना नया नामकरण
सहुलाखोरवाली* किये जाने से
इंकार कर दिया था…।

 

[*जगह के नाम में ‘वाली’ जोड़ के बुलाये जाने की परंपरा]

विक्रांत मिश्र
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं। साहित्य व सिनेमा में गहरी रुचि रखते हैं। किताबें पढ़ना सबसे पसंदीदा कार्य है, सब तरह की किताबें। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं, कुछ बड़ा करने की जुगत में दिन काट रहे हैं।