‘Maa Ko Yaad Karte Hue’, a poem by Nirmal Gupt
उस रात अँधेरा बहुत घना था
मौसम ज़रा गुनगुना
माँ ने अपने सर्द हाथों में थाम
मेरे हाथ को कहा
अरे तू तो तप रहा है भट्टी -सा
उसके ये लफ़्ज़ मेरे कान तक पहुँचे
और बिखर गए आँखों से
पिघलते आइसक्यूब की तरह
उस रात पहली बार उसने कहा
सरका दो खिड़कियों पर लगे मोटे परदे
मैं देखना चाहती हूँ कालिमा में
बग़ीचे में खिले वासंती फूल
आसमान में तिरते बहुरंगी पंछी
परस्पर उड़ान की होड़ में लगी
बहुरंगी पतंगों का तिलिस्म
उस रात उसके कहते ही
खिड़कियों के पट चौपट खुल गए
रोशनदान के लाल पीले नीले काँच से छनकर
फुदकने लगा चाँदनी का रूपहला छौना
उसकी चारपाई पर बिछी चादर की सिलवटों पर
पूरा कमरा भर गया मौसमी फलों की सुवास से
उस रात उसने कहा
जा जल्दी ले आ थोड़े से लौकाट मेरे लिए
बड़ी भूख लगी है मुझे
तेरे पिता होते, ले आते
लाहौर वाले क़ादिर के बाग़ से
रुमाल में बाँध रस से चुह्चुहाते फल
उस रात माँ देखती रही सघन अँधेरे में
रोशन उम्मीदों के सपने खुली आँखों
बाट जोहती मेरे पिता की
प्रेम-पगे उलहानों के साथ
पूछती रही मुझसे निरन्तर
क्या रेडियो पर आनी बंद हुई युद्ध की ख़बर
क्या आज भी डाकिया नहीं लाया
उनकी कोई खोज ख़बर
उस रात वह अचानक चली गयी
मेरे हाथों में सौंप
अपनी यादों और इंतज़ार की अकूत विरासत
अँधेरे और रोशनी के आरपार
मैं उसके ठण्डे हाथों को
अपनी रूह में सम्भाले रोज पूछता हूँ
क़ादिर के बाग़ का पता…
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