मैं अदना-सा आदमी
मैंने पाया, इतना प्यार
मैंने माँ की कथरी ओढ़कर
ठण्ड के हिमालयों को
झींगुर या कीड़ों की तरह रेंगते देखा
सूपे की हवा ने उतार दिया
गर्मियों का जलता बुखार
अपनी स्मृतियों को फटकारकर पहनने से
मेरे शरीर के रोएँ सब, एक-एक
नोकदार काँटे हो आते हैं
चुभते हैं ख़ुद को ही
कई बार
अपनी ही भूख की
हड्डियाँ चबाकर
मौत को निगलकर जिया हूँ—
अब, बार-बार विपत्ति की बहाली में
छिलती-जलती चमड़ी
और रिसते घावों की
कराह से टन्नाती ताँत-सी
धमनियों में उत्तेजित सारंगी-सी गुहार
आख़िर मैं भी एक आदमी
अपने भाइयों की तरह
एक जलता आकाश
फिर बरसती मृत्यु का सामना करती हुई
माँ ने जिसे जन्म दिया।
मलय की कविता 'शामिल होता हूँ'