मैं आज भी दफ़्तर से
हारा थका लौटा हूँ

बीमार भी हूँ शायद
मैं कह चुका हूँ माँ से

के आज वो कमरे में
आएँ नहीं बिलकुल भी

चिल्ला रहा है बिस्तर
मैं जा रहा हूँ उसपर

फिर लौट आया है दिन
मैं चल दिया हूँ फिर से

दफ़्तर पहुँचते ही मैं
ये देखता हूँ के सब

इस ओर आके मुझको
कहने लगे हैं साहब

केबिन अचानक से ये
छत बन गया है कैसे

मुझको दिखा हूँ मैं ख़ुद
ख़ुद को बधाई देके

हँसते हुए क्यूँ जाने
ख़ुद को धकेला मैंने

गिरते हुए चिल्लाना
तो चाहता हूँ लेकिन

मेरे हलक से इक भी
आवाज़ ही ना निकले

आँसू बग़ावत करके
जाने लगे हैं ऊपर

मुझको मगर है दिखता
मेरा जनाज़ा नीचे

ज़िंदा बचूँगा क्या मैं
माँ का भला क्या होगा

भारी बहुत है अब दिल
मर ही गया मैं समझो

ये क्या हुआ मैं कमरे
तक आ गया हूँ कैसे

कितना अजब था सपना
मैं बच गया हूँ मतलब

सिर गोद में है माँ की
सहला रही हैं सिर माँ

मैं छू रहा हूँ माथा
पट्टी रखी है गीली

माँ जग रहीं थी तबसे
मैंने कहा था ना माँ

तुम मत यहाँ पे आना
माँ मुस्कुरा दी मेरी

लगने लगा है अच्छा
अब ठीक हूँ मैं शायद

ऊँचाइयों से मैंने
ख़ुद को अगर धकेला

फिर भी बचा ही लेगी
ये गोद माँ की मुझको!

प्रशस्त विशाल
25 अप्रैल, 2000 को भोपाल (म.प्र.) में जन्मे प्रशस्त विशाल एक युवा उद्यमकर्ता, सिविल अभियांत्रिकी छात्र व लेखक हैं । ई-मेल पता : [email protected]