ये रात और रातों की तरह ही है। थोड़े समय पहले यही रात शाम थी। सूरज सिन्दूरी था और आसमान ऐसा जैसे किसी ने नीले बदन पर हल्दी का लेप कर दिया हो।
कमरे से निकलकर मैं सीढ़ियों पर बैठ गया। रात भर पला ग़ुबार सुबह पानी के छींटों के साथ ही धुल गया था। हौले-हौले अंधेरा हर कोने में ज़ज्ब हो रहा था। आस-पास सन्नाटा दस्तक देने लगा था, सोने की तैयारियाँ चल रहीं थीं। लोग अपनी कोशिशों को ताला लगाकर दो घड़ी सुकून की तलाश में बिस्तरों पर लेटने की बेआवाज़ घोषणा कर चुके थे, जैसा हर शाम के बाद करते हैं।
नींद किसी के लिए पुनर्जीवित होने की कारीगरी है, किसी के लिए मृत्यु की तैयारी।
मेरे लिए जाने क्या है?
फ़ोन हाथ में था और नम्बर ज़हन में, डायल किया, सोचा, नाहक़ दिल दुखाया, मना लूँ। कैसा लगता है जब हम अपनी ग़लतियों की मुआफ़ी के लिए सर पटकने के लिए कोई पत्थर ढूंढ़ रहे होते हैं, तब कोई लम्हा हमारी ख़िलाफ़त करता हुआ हमारे हाथ में एक पत्थर थमा के चला जाता है। हम पत्थर को सिर पर मारना भूलकर किसी और की तरफ़ फेंक देते हैं। ऐसा होता है, मगर क्यों होता है?
मुझे हर बार माफ़ करने के लिए शुक्रिया। मेरा दिल तुम्हारी तरह बड़ा नहीं है, पर बेशुमार प्यार है। समय की चोट खाया परिन्दा अपनी उड़ान को स्थगित करने की सोचता है पर पंख पीठ पर उगते हैं।
क्या ये तुम्हें बताने की ज़रूरत है कि हर युग में पीठ हमेशा ही पेट से हारी है?
तुम्हारा होना ज़िन्दगी का होना है। ज़िन्दगी काम, दफ़्तर और नींद से इतर कोई चीज़ होती है। ज़रूरतों के बहुत भीतर एक आत्मा को छूता हुआ कोई ज़ज़्बा या यूँ कहूं- हमारे दरमियाँ प्यार से टूटे हुए वक़्त की किरचों जैसा कुछ। वैसे तुम क्या कहते हो ज़िन्दगी के बारे में?
जिस शाम हमारी बातों को हरा होना होता है, उस शाम तुम्हारे सुबकने की आवाज़ मेरे मन को काला साबित कर देती है। मैं अपनी कालिमा को तुम्हारी आँखों के काजल में बदलकर तुम्हें और भी ख़ूबसूरत करने का वादा करता हूँ। ये मेरी तरफ़ से दीं गयीं सब उलाहनाओं की माफ़ी है। तुम अब मुस्कुरा क्यों नहीं देते?
मन मुलायम भी होता है और मायावी भी, मगर मुझे इस फेर में नहीं पड़ना है। मैं तुम्हारी फ़िक्र करता हूँ। हर उस घड़ी, जब रुलाता हूँ तुम्हें, ख़ुद को कोसता हूँ।
कल एक बुज़ुर्ग मिले थे, उनसे मैंने पूछा- “कैसे हो?”
“सबसे बड़ी ख़ुशखबरी ये है कि ज़िन्दा हूँ, अजीब ये है कि इन्तजार में हूँ।” उनको सुना तो तुम्हारी याद आयी, याद के साथ सवाल भी- “तुम ठीक तो हो ना?”
वैसे तुम्हें बता दूँ- यहाँ नदी में पानी आ गया है, इस साल बारिश कम है फिर भी तुम्हारे आने तक पानी इतना तो रहेगा कि हम पिछली बार की तरह छप्प-छप्प छप्पाक खेलते हुए एक दूजे के मन को भीगो दें।
और हाँ, लोग कहते हैं कि मेरी कविताओं में निखार आ गया है, क़लम की धार भी तेज़ हुई है। अब ये मत कहना कि मियां अपने मुँह मिट्ठू बन रहा है। तुम्हें भी तो पसन्द आतीं हैं ना आजकल?
बाकी बातें तुम्हारे आने पर, इस बार बस ये माफ़ीनामा।