‘Maar Khayi Auratein’, a poem by Chandra Phulaar
उन प्रौढ़ औरतों ने
उन नवयौवनाओं से
जीवन-भर शत्रुता निभायी!
घर के बाहर चबूतरे पर बैठ
रखती रहीं
उनकी चाल,
कमर की लचक
और अधखुले अंगों का हिसाब
उन श्यामलाओं को
कभी ना भाये
उन गौरांगियों के
नैन-नक़्श,
वे उन्हें
जादूगरनी कहती रहीं,
पुरुषों को रिझाने वाला
‘छल’ मानती रहीं
उन घरेलू औरतों को
वे तृप्त विवाहिताएँ
सदा मायावी लगती रहीं
जिनके पुरुष उनके मायाजाल से
बाहर ही न निकल सके
रूप फीका पड़ चुकने के
बाद भी,
ये उन्हें देख
भीतर-भीतर सूखती रहीं
ये बहिष्कृत
तिरस्कृत
कलंकित औरतें थीं,
जीवन के सभी सुखों से
वंचित औरतें थीं,
जिनको किसी ने कभी प्रेम से न छुआ,
कभी सीने से नहीं चिपकाया,
इनके हिस्से बस
संताप ही आया
इन औरतों ने
पूरी निष्ठा से
उन औरतों से दुश्मनी निभायी
जो मुँह खोल ज़ोर से हँसतीं,
मन भर जीतीं
ये उनके चरित्र पर वार
करने में भी न हिचकिचायीं,
सिद्ध कर दिया इन्होंने
कि औरत ही औरत की ‘परमशत्रु’ है
अनंत काल से!
सोचती हूँ…
आख़िर ये
‘मार खायी’ औरतें
‘प्रेम पायी’ औरतों की
दुश्मन ना होतीं
तो भला क्या होतीं??
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