‘Madhumas’, a poem by Shweta Mishra
प्रेम में झूमती रक्तशिराओं
से बासंती कुसुम के
आख़िरी कणों का
पान कर जाना
सहज स्वभाव था उसका
अनन्त काल से
अनवरत यही होता आया था
पिपासा थी सुकुमार
भावनांकुरो को सस्नेह पोषित कर
अधरों पर भवरें सा
गीत सुनाना और रक्ताभ
होते कपोलों का रंग
तप कर तंबई हो जाना..
कोई मायावी सम्मोहन विद्या में
निपुण सधा हुआ विद्वान
ही था जो उसके अभिमंत्रित
शब्दों के स्वरूप पर मुग्ध हो बैठती थीं
यौवन की सीमा पर पाँव धरती
सुंदरतम् ईश्वरीय कृतियाँ…
लावण्यता को चख कैसे लेता वो छलिया
क्या मधुमास के आहट मात्र से?
प्रेमांकुरो का बीज पोषित कर देता था!
क्यूं नहीं अपने हृदय के कपाट पर
निष्ठुर हो सांकल चढ़ा आतीं
और लाख हठ करने पर भी
नहीं खोलतीं बंद कपाट….
नभ के सुदूर छोर तक
पसरी उनकी उदासी भाँप
चला आता वो मलंग…
निश्चित ही थी उसकी वापसी
हर मधुमास में…
वर्षों बनें हर खोल को तोड़ता
जा बैठता हृदय में…
और हर बार दरक जातीं
खींची गई हर सीमाएँ…