आलोचना अच्छी है, अगर करनी आती हो। और अगर लेनी आती हो तो और भी। लेकिन अक्सर देखा जाता है कि न तो कोई जिम्मेदारी से आलोचना कर पाता है और न ही बहुत लोग उसे स्वीकार पाते हैं। लेकिन फिर इतिहास में कुछ ऐसी शख़्सियत भी मिल जाती हैं, जिन्होंने न केवल अपनी आलोचनाओं का मान किया, बल्कि अपने आलोचकों का अनुसरण न करते हुए, शिष्टता की सीमा में रहते हुए, हर आलोचना का बड़े ही तरीके से जवाब दिया। ऐसी ही एक शख़्सियत हैं ‘हरिवंशराय बच्चन’।
मेरे लिए बच्चन हमेशा से एक ख़ास जगह रखते हैं। जितना भी पढ़ा है, सबसे अधिक उनसे ही प्रभावित रहा हूँ। उनकी आत्मकथा का पहला भाग ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ पढ़ रहा था तो एक जगह बच्चन ने अपने पाठकों से अपनी तीन किताबें ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’ और ‘मधुकलश’ को साथ में, इसी क्रम में पढ़ने का आग्रह किया हुआ था। उस समय तो इस आग्रह का कारण नहीं समझ पाया लेकिन जब किताबें पढ़ीं तो उसका असर क्या था उसे बताने के लिए शब्द ढूंढने मुश्किल हैं, फिर भी आप सभी से साझा करने की कोशिश करता हूँ।
मधुशाला बच्चन की दूसरी किताब थी और जैसा सब जानते हैं कि इससे ज़्यादा पसंदीदा/पॉपुलर किताब हिन्दी काव्य में शायद ही कोई हो।
“कभी न कण भर खाली होगा
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ।”
1935 में ‘मधुशाला’ का जब पहला संस्करण प्रकाशित हुआ तो कौन जानता था कि बच्चन की ये पंक्तियाँ सच हो जाएँगी। ग्याहरवें संस्करण तक जिस किताब को एक लाख लोग पढ़ चुके थे, उस किताब का 68वाँ संस्करण 2016 में निकला है। अंदाज़ा लगाना ही मुश्किल है कि बच्चन की यह किताब कितने हाथों से गुज़रकर कितनी पीढ़ियों में अपनी जगह बना चुकी है। मधुशाला के इस सुनहरे सफर की शुरुआत हुई थी दिसम्बर 1933 में, स्थान- शिवाजी हॉल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। एक कवि सम्मेलन जिसमें नवयुवक कवि के तौर पर बच्चन ने पहली बार मधुशाला सुनायी थी। कहते हैं कि जिस समय बच्चन मधुशाला का पाठ कर रहे थे, उस हॉल में पाँव रखने तक को जगह नहीं थी। और सुनाने में वो जादू कि पाठ के दौरान पंक्तियों को हज़ारों सुनने वाले, बच्चन के साथ-साथ दोहरा रहे थे। लेकिन जहाँ एक तरफ मधुशाला की धूम थी, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने मधुशाला की यह कहकर आलोचना शुरू कर दी कि उसमें मदिरा का गुणगान किया गया है। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मलेन, इंदौर में जब गांधीजी के सामने मधुशाला को सुनाने का अवसर आया तो उसे याद करते हुए बच्चन बताते हैं-
“किसी ने गांधीजी से शिकायत कर दी थी कि जिस सम्मलेन के आप सभापति हों उसमें मदिरा का गुणगान किया जाए! बड़े आश्चर्य ही बात है! दूसरे दिन अंतरंग सभा की बैठक थी, रात के 12 बजे से। गांधीजी ने 11:55 पर मुझे सभा-हॉल के बगलवाले कमरे में मिलने को बुलवाया। लोगों को मांगने पर भी गांधीजी से मिलने का समय नहीं मिलता था; मुझे बुलवाने की ख़ुशी थी, डर भी; अगर कह दें कि ‘मधुशाला’ न पढ़ा करूँ या नष्ट कर दूँ तो उनकी आज्ञा को टालना कैसे संभव होगा। गांधीजी ने शिकायत की चर्चा की और कुछ पद सुनने चाहे। कुछ सतर्कता मैंने भी बरती। चुन-चुनकर ऐसी रुबाईयाँ सुनाईं जिनके संकेतार्थ शायद उन्हें सहज ग्राह्य होते, दो की मुझे याद है। “इसमें तो मदिरा का गुण-गान नहीं है,” उनसे यह सुन और उनके द्वारा बख्शा जाकर मैं भागा।”
गांधीजी से बच्चन भागे लेकिन उस आलोचना से कैसे भागते जो उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। और सिर्फ आलोचना से ही नहीं, उस प्रेरणा से भी जिसने उन्हें मधुशाला लिखने को प्रेरित किया था। यह उस प्रेरणा की तीव्रता और जनता में बच्चन का विश्वास ही था कि बच्चन ने अपनी अगली किताब ‘मधुबाला’ में फिर वही कहानी दोहरायी जो ‘मधुशाला’ बयान कर चुकी थी। जिस मधुशाला की आलोचना करते लोग थक नहीं रहे थे, बच्चन ने उसी मधुशाला को और विस्तृत रूप में फिर से जनता के सामने रख दिया। मधुबाला की कविताओं के शीर्षक पर ध्यान दिया जाए तो इस बात को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है – ‘मधुबाला’, ‘मालिक-मधुशाला’, ‘मधुपायी’, ‘पथ का गीत’, ‘सुराही’, ‘प्याला’, ‘हाला’, ‘प्यास’ इत्यादि। जो लोग सोच रहे थे कि उनकी आलोचना से बच्चन शायद झिझक जाएंगे, उनको बच्चन का जवाब कुछ यूँ था-
“चाहे जितनी मैं दूँ हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अन्तिम,
यह शांत नहीं होगी ज्वाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!”
‘मधुबाला’ की सारी कविताएँ जैसे एक उत्सव मना रही हों और आकाश से मधु की वर्षा में भीगते बच्चन तैयार न हों एक बूँद भी धरती के लिए छोड़ देने को। प्रतीत होता है उस मधुरस की एक-एक बूँद ही ‘मधुबाला’ की एक-एक कविता में ढल गयी थी।
“मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल।
झंकृत हों मेरे कानों में,
चंचल, तेरे कर के कंकण,
कटि की किंकिणि
पग के पायल-,
कंचन पायल,
‘छन-छन’ पायल।
मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल।”
लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। बच्चन पर ये आलोचनात्मक आक्रमण जारी रहे और वो भी और अधिक तीव्रता के साथ। किसी ने उनपर निराशावादी होने का आरोप लगाया तो किसी ने वासनाग्रस्त होने का। और ये सारे आक्रमण बच्चन पर किस तरह से प्रभाव डाल रहे थे इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसका जवाब देते हुए बच्चन ने इस शृंखला की तीसरी किताब ‘मधुकलश’ के 7वें संस्करण आने तक इस किताब की कोई भूमिका नहीं लिखी। उनका मानना था कि यदि उनकी कविताओं में ‘भाव-विचारों की सच्चाई-गहराई’ है तो इन आलोचनाओं के बावजूद, भूमिका के रूप में कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सिफारिश/आग्रह किए बिना ही उनकी इस किताब को सफलता प्राप्त होगी और यही हुआ भी। लोगों को ‘मधुकलश’ भी उतनी ही पसंद आयी जितनी कि ‘मधुशाला’ और ‘मधुबाला’। और कविताओं के ज़रिये अपनी आलोचनाओं का फिर से जवाब देने का सिलसिला इस किताब में भी जारी रहा। ‘कवि की वासना’, ‘कवि की निराशा’, ‘कवि का गीत’ और ‘कवि का उपहास’ कविताओं के शीर्षक केवल इत्तेफ़ाक़ नहीं थे।
“कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुलाए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!”
इस वासनामय उदगार में कितनी वासना थी और कितना प्रेम, यह जानना उन लोगों के वश में नहीं था जो एक प्रकार की नकारात्मकता के अभ्यस्त हो चुके थे। जो लोग कविता-प्रेम की अपेक्षा व्यक्तिगत द्वेष को प्राथमिकता देते हों, उनकी नज़र में सोना क्या, और कंकड़ क्या।बहरहाल, उस आलोचना का भी परिणाम यह रहा है कि हिन्दी साहित्य को बच्चन की इस त्रिवेणी के रूप में एक कवि के हृदय से उपजे कुछ ऐसे अंकुर मिले, जो आज भी साहित्य के आँगन में पुराने बरगद की तरह जमे खड़े हैं और जिसकी छाँव में न जाने कितनी नव-कल्पनाएँ अपनी पहली नींद पूरी करती हैं..।