रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती
कोई घटता हुआ, बढ़ता हुआ, बेकल साया
एक दीवार से कहता कि मिरे साथ चलो
और ज़ंजीर-ए-रिफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार
अपने पिंदार के नश्शे में सदा इस्तादा
ख़्वाहिश-ए-हमदम-ए-देरीना पे हँस देती थी
कौन दीवार किसी साए के हम-राह चली
कौन दीवार हमेशा मगर इस्तादा रही
वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़
और अब संग-ओ-गिल-ओ-ख़िश्त के मलबे के तले
उसी दीवार का पिंदार है रेज़ा रेज़ा
धूप निकली है मगर जाने कहाँ है साया!