खिड़कियाँ खोल दो
शीशे के रंग भी मिटा दो
परदे हटा दो
हवा आने दो
धूप भर जाने दो
दरवाज़ा खुल जाने दो
मैं आज़ाद हुई हूँ
सूरज आ गया है मेरे कमरे में
अन्धेरा मेरे पलंग के नीचे छिपते-छिपते
पकड़ा गया है
धक्के लगाकर बाहर कर दिया गया है उसे
धूप से तार-तार हो गया है वह
मेरे बिस्तर की चादर बहुत मुचक गई है
बदल दो इसे
मेरी मुक्ति के स्वागत में
अकेलेपन के अभिनन्दन में
मैं आज़ाद हुई हूँ
गुलाब की लताएँ
जो डर से बाहर-बाहर लटकी थीं
खिड़की के छज्जे के ऊपर
उचक-उचककर खिड़की के भीतर
देखने की कोशिश में हैं
कुछ बदल-सा गया है
सहमे-सहमे हवा के झोंके
बन्द खिड़कियों से टकराकर लौट जाते थे
अब दबे पाँव
कमरे के अन्दर ताक-झाँक कर रहे हैं
हाँ! डरो मत! आओ न!
भीतर चले आओ तुम
अब तुम पर कोई खिड़कियाँ
बन्द करने वाला नहीं है
अब मैं अपने वश में हूँ
किसी और के नहीं
इसलिए रुको मत
मैं आज़ाद हुई हूँ
कई दिनों से घर के बाहर
बच्चों ने आना बन्द कर दिया था
मुझे भी उनकी चिल्लाहट सुने
लगता था युग बीत गया
आज अचानक खिड़कियाँ खुलीं देख
दरवाजे़ खुले देख
शीशों पर मिटे रंग और परदे हटे देख
वे भौंचक-से फुसफसा रहे हैं
कमरे की दीवार से सटे-सटे
ज़ोर से बोलो न
चिल्लाओ न जी भरकर
नहीं
मैं कोई परदेश से नहीं लौटी हूँ
नयी नहीं हूँ इस घर में
बरसों से रहती हूँ
खो गई थी किसी में
आज अपने-आपको मिल गई हूँ
अपनी आवाज़ और अपनी बोली भी भूल गई थी
सुनना भी भूल गई थी
सुनाना भी
अब सनने लगी हूँ
इसलिए ख़ूब बोलो
दीवारों से सटकर नहीं
खिड़कियों से झाँककर हँसकर चिल्लाओ
कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं है
मैं आज़ाद हुई हूँ
अब आज़ाद हैं सभी
मेरा शयनकक्ष भी
जो एक बन्दी-गृह बन गया था
बन्द हो गया था तहख़ाने की तरह
तिलस्म के जादू के ताले पड़ गए थे जिस पर
आज खुल गया है
मैं आज़ाद हुई हूँ!
कुबेरदत्त की कविता 'स्त्री के लिए जगह'