‘Main Bhool Jati Hoon Aksar’, a poem by Shweta Madhuri

मैं भूल जाती हूँ अक्सर
कहे और सुने हुए शब्दों को
सम्भव है किसी दिन भूल जाऊँ मैं भाषाएँ,
भूल जाऊँ मैं आकृतियाँ
जिनसे मानव निर्मित है…

भूल जाऊँ मैं ब्रह्माण्ड के सभी रस्ते
जो ले जाते हैं किसी ना किसी
गन्तव्य की ओर..
भूल जाऊँ मैं मर्यादाएँ, मान्यताएँ,
नियम और तरीक़ों को
जिन पर चलकर सभ्यता विकसित हुई..

भूल जाऊँ मैं मेरी पहचान
मेरा नाम और मेरी देह..
जिसकी देहरी के अन्दर
सांकल लगाए बन्द पड़ी हूँ,
रह जाए अटका
बस सन्नाटों का राग
और मौन में गुनगुनाता प्रेम
पहचान सकोगे क्या तब भी मुझे…??

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