‘Main Kahin Aur Bhi Hota Hoon’, a poem by Kunwar Narayan
मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है
हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है
ज़िन्दगी बेहद जगह माँगती है
फैलने के लिए
इसे फ़ैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुँचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें…
'यात्रा एक अवसर हो और घर एक सम्भावना'