मैं रोज एक हवन करती हूँ
मैं रोज एक हवन करती हूँ
तुम्हारी यादों की समिधा से आहुति दे दे कर
फिर विसर्जित कर देती हूँ समय की नदी में उसे
और तुम नित्य नए जन्म ले लेते हो
मुझे छलने के लिए,
हँसते हुए फिर से आ जाते हो
फिर तुम्हें देखकर मैं खीझ कर चीख़ उठती हूँ
मेरी चीख़ों की प्रतिध्वनियाँ शून्य से टकराकर
फिर से मेरे हृदय में लौट आती हैं
मैं हार कर उन्हें फिर अपने भीतर समाहित कर लेती हूँ
सब को आभास हुआ मेरी चीख़ों का,
ये एकांत अनंत भी, मेरे साथ बैठ कर रोया है
पर तुम तक कभी नहीं पहुँची मेरी चीख़ें
क्योंकि नियति ने,
एक महीन मर्यादा, का अदृश्य अवगुंठन
खींच दिया था हमारे बीच में
जिसे न मैं कभी हटा पाई,
न तुम पार कर पाए
मैं हमेशा एक निविड़ धुंधलके, के अंक में बैठी रहती हूँ
क्योंकि मेरे स्नेह भरे उज्ज्वल हृदय में तुम्हारा ग्रहण लग गया है..
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