मैं तो कहीं भी नहीं दिखता,
ना शाश्वत ना सीमित;
मेरा दिखना जायज़ भी नहीं।
शायद मुझे तुम
धर्म में देखना शुरू कर दो
या रंगो में,
जो युगान्तरकालीन
मरणशील हाड़-मांस के कुछ
चलते फिरते हिस्सों को,
अनियमित बनाते हैं,
अलग बनाते हैं।
मुझे देखने लगोगे
तुम उन बेढब इमारतों में
और कुछ पत्थर की बेशक
ख़ूबसूरत तराशी हुई मूरतों में ,
जो विक्षिप्त पड़ी हैं
अपना अस्तित्व लिए
किसी कोने में,
शायद किसी कारीगर ने बड़ा गर्व महसूस किया होगा
मेरी निर्माण प्रक्रिया में
जो सिर्फ़ उसकी
कल्पना और दृढ़ता का
एक ओछा सच बन गया।
मुझे देखोगे तुम किसी दरिद्र,
सुन्न-सी आवाज में
जो मेरा नाम लेकर
खुद को दया का पात्र बताता हो,
और मुद्रा का स्पर्श
उसे आनन्द का ज्ञान कराता हो।
यदि सत्य है
तो असत्य में भी मैं;
जड़ है
तो चेतन भी मैं,
लघु भी और दीर्घ भी मैं;
कुछ चंद शब्दांशों
का मोहताज़ बना लेना
और कुछ कच्ची परिभाषाओं
में कैद कर देना
अस्तित्व सीमित नहीं कर देता।
आदि और अनंत के बीच
चिर कालीन रचनाओं में मैं
हमेशा जीवित रहूँगा।
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