‘Man Ke Darwaze’, a poem by Rahul Boyal

न जाने मन के कितने दरवाज़े हैं
और कितनी खिड़कियाँ!
कौन कब चला आता है, कुछ पता नहीं
कौन कब चला जाता है, कुछ पता नहीं।

मन के लिए न कोई दरवाज़ा है
न कोई खिड़की
उसके लिए खुला आकाश है
मगर वहाँ भी वह पंछियों की तरह
पतंग के एक मामूली माँझे से मारा जाता है।

एक अथाह समुद्र है
जिसमें कुछ उलझे हुए धागे ही उसे
मछली समझकर लील जाते हैं।
एक विशाल धरती है
जिस पर उसे निरुद्ध करने के षडयंत्र जारी हैं।

मन को खुला छोड़ देना
आवारा साँड को खुला छोड़ देने जैसा है
मन को बाँध के रखना
मासूम खरगोश को बाँध के रखने जैसा है।

तुम ही बताओ इस मन का मैं क्या करूँ?
इसे रोगी समझकर इलाज करूँ
या बेफ़िक्र उन्मुक्त परवाज़ भरूँ!

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राहुल बोयल
जन्म दिनांक- 23.06.1985; जन्म स्थान- जयपहाड़ी, जिला-झुन्झुनूं( राजस्थान) सम्प्रति- राजस्व विभाग में कार्यरत पुस्तक- समय की नदी पर पुल नहीं होता (कविता - संग्रह) नष्ट नहीं होगा प्रेम ( कविता - संग्रह) मैं चाबियों से नहीं खुलता (काव्य संग्रह) ज़र्रे-ज़र्रे की ख़्वाहिश (ग़ज़ल संग्रह) मोबाइल नम्बर- 7726060287, 7062601038 ई मेल पता- [email protected]