‘Maun Ki Darkaarein’, a poem by Mukesh Prakash

मैंने सुनी हैं तुम्हारे
मौन की दरकारें
तुम्हारे पैरों में बंधे
घूँघरुओं से आतीं

मैंने देखा है तुम्हारे पैरों
के नेपथ्य का अचेतन हिस्सा
घूँघरुओं के पीछे,
जो थिरकना नहीं चाहता

मुझे पता है तुम तब
नृत्य में लयबद्ध होती हो
जब तुम तम से विषणन
अपने ही देह में प्रवासिनी होती हो

मरुस्थल की एक मात्र नदी
तो विलुप्त हो गयी लेकिन
भर गई वो सारा पानी
तुम्हारी देह में जो बहता है
घूँघरुओं के पीछे से

मन की दूब पर चढ़ी है
पूस की रात
जो बर्फ़ पिघलने नहीं देती

कोरे टंगे कैनवस और रंग
की शीशियाँ निहार रही हैं तुम्हें
डाल दो शीशियों में कुछ बूँदें
विलुप्त नदी की

और रंग दो कैनवस को
मुझे फिर बताना
क्या बना तुमसे?

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