1985 में देहरादून में काम करते समय ओमप्रकाश वाल्मीकि के आँखों के सामने कुछ मज़दूरों की मौत हो गयी थी, जिसके बाद फ़ैक्ट्री, इंजीनियर और यहाँ तक कि मज़दूर यूनियन वालों ने भी उन मज़दूरों से कोई भी सम्बन्ध होने से इंकार कर दिया था। लाख कोशिशों के बावजूद वाल्मीकि जी उन मज़दूरों की कोई सहायता नहीं कर पाए थे। ऐसी मनोस्थिति में ही इस कविता का जन्म हुआ, जिसका पाठ वाल्मीकि जी ने बाद में उसी संगठन द्वारा कराये गए कवि सम्मलेन में हज़ारों मज़दूरों के सामने किया था। पढ़ें!
(साभार: ‘जूठन’)
मौत का ताण्डव
शब्द हो जाएँ जब गूँगे
और भाषा भी हो जाए अपाहिज
समझ लो
कहीं किसी मज़दूर का
लहू बहा है
धूप से नहाकर
जब चाँदनी
करने लगे
अठखेलियाँ
धुएँ के बादलों से
समझ लो
अँधेरों ने उजालों को ठगा है
दर्द के रिश्ते
जब नम होने लगें
और गीत रचने लगेंगी
सन्नाटों की हवाएँ
समझ लो
आदमी का लहू
कहीं सस्ते में बिका है
धरती की गोद में
ओढ़कर चादर आकाश की
सो गए मज़दूर सभी
थक-हारकर
बजता रहा
बेरहम मौसम का नगाड़ा
रात भर
बर्फ़ीली हवाओं की लय-ताल पर
मौन खड़ा पर्वत
देख रहा था चुपचाप
मौत का ताण्डव
जो मिट्टी का सैलाब बन
टूट पड़ा गहरी नींद में सोए मज़दूरों पर
घुट-घुट कर
जिस्म ठण्डे पड़ गए
सर्द रात के सन्नाटों में
चिथड़ों में लिपटी लाशें
ख़ामोशी से चीख़ रही थीं
ढूँढ रही थीं
उन आँखों को
जिनके इशारों पर
करते थे निर्माण अबाध गति से
नित नयी सम्भावनाओं का
पूछ रही थी
पर्वतमालाओं से
अधबनी दीवारों से
असंख्य सवाल
शब्द हुए बोझिल
और भाषा भी हो गई अपाहिज
हाथों में
पैरों में पहना दी हों जैसे
ज़ंजीरें भारी
प्रश्नों के चक्रव्यूह में फँसे
पूछ रहे थे सभी
कल मरे वे
अब किसकी है
बारी?…
अब किसकी है
बारी?
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'घृणा तुम्हें मार सकती है'